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जैनसाहित्य और इतिहास
परिशिष्ट [ पउमचरिय और पद्मचरितके कुछ छायानुवादरूप उद्धरण ] सुव्वंति लोयसत्थे रावणपमुहा य रक्खसा सव्वे । वस-लोहिय-मंसाई-भक्खणपाणे कयाहारा ॥ १०७ ।। किर रावणस्स भाया महाबलो नाम कुंभयण्णो त्ति । छम्मासं विगयभओ सेजासु निरंतरं सुयइ ॥ १०८॥ जइ वि य गएसु अंगं पेलिजइ गरुयपव्वयसमेसु । तेल्लघडेसु य कण्णा पूरिजंते सुयंतस्स ॥ १०९॥ पडुपडहतूरसई ण सुणइ सो सम्मुहं पि वजंतं । नय उठेइ महप्पा सेजाए अपुण्णकालम्मि || ११० ।। अह उहिओ वि संतो असणमहा(णामह)घोरपरिगयसरीसो। पुरओ हवेज जो सो कुंजर महिसाइणो गिलइ ॥१११ ॥ काऊण उदरभरणं सुरमाणुसकुंजराइबहुएसु। पुणरवि सेजारूढो भयरहिओ सुयइ छम्मासं ॥ ११२ ॥ अन्नं पि एव सुव्वइ जइ इंदो रावणेण संगामे । जिणिऊण नियलबद्धो लंकानयरी समाणीओ ॥ ११३॥ को जिणऊण समत्थो इंदं ससुरासुरे वि तेलोके । जो सागरपेरंतं जंबुद्दीवं समुद्धरइ ॥ ११४ ॥ एरावणो गइंदो जस्स यि वजं अमोहपहरत्थं । तस्स किर चिंतिएण वि अन्नो वि भवेज मसिरासी ॥११५॥ सीहो मएण निहओ साणेण य कुंजरो जहा भग्गो। तह विवरीयपयत्थं कई हि रामायणं रइयं ॥ ११६ ॥ अलियं पिसव्वमेयं उववत्तिविरुद्धपश्चयगुणेहिं। न य सद्दति पुरिसा हवंति जे पंडिया लोए ॥११७ ॥ एवं चिंतंतो श्चिय संसयपरिहारकारणं राया। जिणदरिसणुस्सुयमणो गमणुच्छाहो तओ जाओ ॥११८ ॥
-पउमचरिय दूसरा उ०