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________________ १७४ जैनसाहित्य और इतिहास हैं। कुमारसेन नन्दितटके थे, उससे नन्दितटगच्छ; रामसेन मथुराके थे, उससे माथुर गच्छ और बागड़से (सागवाड़ेके आसपासके प्रदेशको अब भी बागड़ कहते हैं) बागड़गच्छ और लाट (गुजरात) और बागड़से लाड़-बागड़ गच्छ । लाट और बागड़ बहुत समय तक एक ही राजवंशके अधीन रह चुके हैं । गण, गच्छ और संघ कहीं-कहीं पर्यायवाची रूपमें भी व्यवहृत हुए हैं। माथुरसंघको जीव-रक्षाके लिए किसी तरहकी पिच्छि न रखनेके कारण ही जैनाभास कहा है, या और किसी कारणसे, यह समझमें नहीं आता । अन्यथा उस संघके आचार्य अमितगतिके ग्रन्थोंसे तो उनका कोई ऐसा सिद्धान्त-भेद नहीं मालूम होता, जिससे उन्हें जैनाभास कहा जाय । उनके ग्रन्थोंका पठन-पाठन भी दिगम्बर सम्प्रदायमें बराबर होता चला आया है। बहुत सम्भव है कि मयूरपुच्छ और गोपुच्छकी पिच्छि रखनेका विवाद उस समय इतना बढ़ गया हो कि माथुरसंघके आचार्योंने चिढ़कर किसी भी तरहकी पिच्छि न रखना ज्यादा पसन्द किया हो । संघ-भेद अकसर ऐसे छोटे-छोटे कारणों और मतसहिष्णुताके अभावमें होते रहे हैं। ___एक अनुमान यह भी होता है कि काष्ठासंघके मुनि चैत्यवासी या मठवासी हो गये थे, मन्दिरोंके लिए भूमि-ग्रामादि ग्रहण करने लगे थे। इसी कारण शायद उन्हें जैनाभास कहा गया हो। __दर्शनसारकी रचना वि० सं० ९९० में हुई है । उसमें जो काष्ठासंघ की उत्पत्तिका समय वि० सं० ७५३ बतलाया है, उसके बिलकुल ठीक होनेमें हमें सन्देह है । इस विषयमें हमने दर्शनसार-विवेचनामें विस्तारके साथ लिखा है । सन्देह होनेका सबसे बड़ा कारण यह है कि दर्शनसारके अनुसार गुणभद्रकी मृत्युके पश्चात् विनयसेनके शिष्य कुमारसेनने काष्ठासंघकी स्थापना की थी और गुणभद्र स्वामीने अपना उत्तरपुराण श० सं० ८२०, अर्थात् वि० सं० ९५३ में समाप्त किया है। यदि इस ९५५ संवत्को ही उनका मृत्यु-काल मान लिया जाय तो काष्ठासंघकी उत्पत्ति ७५५ से लगभग दो सौ वर्ष पीछे चली जाती है। १ इस विषयपर — वनवासी और चैत्यवासी सम्प्रदाय ' शीर्षक लेखमें अधिक विस्तारके साथ लिखा गया है । २ दर्शनसार गाथा ३०-३२ ।
SR No.010293
Book TitleJain Sahitya aur Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1942
Total Pages650
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size62 MB
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