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आचार्य अमितगति
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काष्ठासंघ और माथुर संघ
अमितगति माथुरसंघके आचार्य थे । देवसेनसूरिने अपने ' दर्शनसार' में जे पाँच जैनाभास बतलाये हैं, उनमें एक माथुरसंघ भी है । इसे निः पिच्छिक भी कहते हैं । क्योंकि इस संघके अनुयायी मुनि मोर- पिच्छि या गो-पिच्छि नहीं रखते थे ।
जैसा कि मैंने लेखान्तरोंमें बतलाया है, प्रायः सभी संघों, गणों और गच्छोंके नाम स्थानों या देशोंके नामसे पड़े हैं, माथुरसंघ नाम भी स्थान के कारण पड़ा है - मथुरा नगर या प्रान्तका जो मुनिसंघ वह माथुर संघ ।
दर्शनसार में काष्ठासंघकी उत्पत्ति आचार्य जिनसेन के सतीर्थ वीरसेन के शिष्य कुमारसेन द्वारा वि० सं० ७५३ में हुई बतलाई गई है, जो नन्दी - तटमें रहते थे और कहा है कि उन्होंने कर्कश केश, अर्थात् गौकी प्रछकी पिच्छि, ग्रहण करके सारे बागड़ देशमें उन्मार्ग चलायो । फिर इसके दो सौ वर्ष बाद, अर्थात् वि० सं० ९५३ के लगभग मथुरा में माथुरों के गुरु, रामसेनने, निःपिच्छिक रहने क उपदेश दिया; े कहा कि न मयूरपिच्छ रखने की जरूरत है और न गोपुच्छर्की पिच्छि | इससे जान पड़ता है कि काष्ठासंघकी ही एक शाखा माथुरसंघ है ।
इस बातकी पुष्टि सुरेन्द्रकीर्ति आचार्यकी बनाई हुई पट्टावली से भी होता है जिसमें कहा है कि काष्ठासंघमें नन्दितट, माथुर, बागड़ और लाड़-बागड़ ये चार प्रसिद्ध गच्छ हुऐ । यह स्पष्ट है कि ये चारों नाम स्थानों और प्रदेशों के नामोंपर रक्खे गये
१ पं० बुलाकीचन्द्रकृत 'वचन - कोश' में जो वि० सं० १७३७ का बना हुआ है, लिखा है कि काष्ठासंघकी उत्पत्ति उमास्वामीके पट्टाधिकारी लोहाचार्य द्वारा अगरोहा नगर में हुई और काठकी प्रतिमा - पूजाका विधान करनेसे उसका काष्ठासंघ नाम पड़ा; परन्तु उक्त कथा सर्वथ अविश्वसनीय है । काठकी प्रतिमाकी बात तो बिल्कुल बे- सिरपैरकी है । काठकी प्रति माका पूजना किसी भी सम्प्रदाय में निषिद्ध नहीं है, यद्यपि काठ - प्रतिमा टिकाऊ न होनेसे नई नहीं जाती ।
२ देखो दर्शनसारकी ३१ से ४१ नम्बर तककी गाथायें ।
३ - काष्ठासंघ भुविख्यातो जानन्ति नृसुरासुराः । तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजन्ते विश्रुताः क्षितौ ॥ श्रीनन्दितटसंज्ञश्च माथुरो बागड़ाभिधः । लाड़-बागड़ इत्येते विख्याताः क्षितिमण्डले ॥