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जैनसाहित्य और इतिहास
५ शाकटायनको ' श्रुतकेवलिदेशीयाचार्य ' लिखा है और चिन्तामणि-टीकाके कर्ता यक्षवर्माने तो उन्हें ' सकलनज्ञानसाम्राज्यपदमाप्तवान्' माना है । परन्तु दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार वीर-निर्वाण ६८३ वर्षके लगभग ही श्रुतकेवलियों या एकदेशश्रुतकेवलियोंका विच्छेद हो गया था । अतएव उनका श्रुतकेवलिदेशीय होना यापनीयसंघकी मानताके अनुसार ही ठीक बैठ सकता है ।
शाकटायनकी रचनायें शाकटायनकी इस समय तीन ही रचनायें उपलब्ध हैं, शब्दानुशासनका मूल सूत्रपाठ, उसकी अमोघवृत्ति और ऊपर जिसका जिक्र आ चुका है, वह 'स्त्रीमुक्तिकेवलिभुक्ति प्रकरण' । इनके सिवाय संस्कृतके सुप्रसिद्ध आचार्य राजशेखरने अपनी काव्य-मीमांसामें पाल्यकीर्तिके मतका उल्लेख करते हुए लिखा है-" यथा तथा वास्तु वस्तुनो रूपं वक्तृप्रकृतिविशेषायत्तातु रसवत्ता । तथा च यमर्थ रक्तः स्तौति तं विरक्तो विनिन्दति मध्यस्थस्तु तत्रोदास्ते, इति पाल्यकीर्तिः ।" इससे मालूम होता है कि पाल्यकीर्ति या शाकटायनका कोई साहित्य-विषयक ग्रन्थ भी था जो अभी तक कहीं मिला नहीं है । क्या आश्चर्य जो उनके और भी ग्रन्थ हों, जिन्हें हम नहीं जानते । 'स्त्रीमुक्ति केवलिभुक्ति' प्रकरणसे मालूम होता है कि वे बड़े भारी तार्किक और सिद्धान्तज्ञ भी थे।
शब्दानुशासनकी टीकायें। शाकटायनके शब्दानुशासनपर अब तक नीचे लिखीं सात टीकायें प्राप्त हुई हैं
१ अमोघवृत्ति-स्वयं सूत्रकारकी ही लिखी हुई है और यही उसकी सबसे बड़ी टीका है । राष्ट्रकुटनरेश अमोघवर्षको लक्ष्य करके उसका यह नामकरण किया गया था। क्योंकि अमोघवर्षके समयमें ही शाकटायन हुए हैं जैसा कि आगे चलकर बतलाया जायगा ।
२ शाकटायन-न्यास-यह अमोघवृत्तिपर प्रभाचन्द्राचार्यकृत न्यास है'। इस ग्रन्थके सिर्फ दो अध्याय उपलब्ध हैं । परन्तु उनसे टीकाकारके सम्बन्धमें कुछ
१ शब्दानां शासनाख्यस्य शास्त्रस्यान्वर्थनामतः प्रसिद्धस्य महामोघवृत्तेरपि विशेषतः । सूत्राणां च विवृतिर्विख्याते च यथामतिः । ग्रन्थस्यास्य च न्यासेति (?) क्रियते नामनामतः ।।