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पण्डितवर आशाधर
" आशाधर त्वं मयि विद्धि सिद्धं निसर्गसौदर्यमजयंमार्य । सरस्वतीपुत्रतया यदेतदर्थे परं वाच्यमयं प्रपञ्चः ” ॥ ६ ॥
इत्युपश्लोकितो विद्वद्विल्हणेन कवीशिना । श्रीविन्ध्यभूपतिमहासान्धिविग्रहिकेण यः ।। ७ ।। श्रीमदर्जुनभूपालराज्ये श्रावकसंकुले । जिनधर्मोदयार्थ यो नलकच्छपुरेऽवसत् ।। ८ ।। यो द्राग्व्याकरणाब्धिपारमनयच्छुश्रूषमाणान्न कान् , पटतीपरमास्त्रमान्य न यतः प्रत्यर्थिनः केऽक्षिपन् । चेरु: कऽस्खलितं न येन जिनवाग्दीपं पथि ग्राहिताः,
पीत्वा काव्यसुधां यतश्च रसिकेवापुः प्रतिष्ठां न के ॥ ९ ॥ १-अनगारधर्मामृतकी मुद्रित टीकामें विन्ध्यभूपतिका खुलासा 'विजयवर्म. मालवाधिपतिः' किया है; परन्तु हमारे अनुमानसे लिपिकारके दापसे अथवा प्रूफ-संशोधक. की असावधानीसे ही विन्ध्यवर्म'की जगह 'विजयवर्म' हो गया है। परमारवंशकी वंशावलियों और शिलालेखोंमें विन्ध्यवर्माका 'विजयवर्मा' नामान्तर नहीं मिलता। श्रीयुत लेले और कर्नल लुअर्डने विन्ध्यवर्माका समय वि० सं० १२१७ से १२३७ तक निश्चित किया है। परन्तु पं० आशाधरजीके उक्त कथनसे कमसे कम १२४९ तक विन्ध्यवांका राज्य-काल माना जाना चाहिए । उक्त विद्वानांने विन्ध्यवर्माके पुत्र और उत्तराधिकारी सुभटवर्मा ( सोहड का समय १२३७ से १२६७ तक माना है, परन्तु सुभटवर्मा १२३७ में राजा था, इसका कोई पुष्ट प्रमाण नहीं है, वह १२४९ के बाद ही राजपदपर आया होगा।
२ नलकच्छपुरको इस समय नालछा कहते हैं। यह स्थान धार (मालवा ) से १० कोसकी दूरीपर है । अब भी वहाँपर श्रावकोंके कुछ घर हैं, जैनमन्दिर भी है। ३-त्रिपष्टिस्मतिकी प्रशस्तिमें इस पद्यका नंबर पाँच है। उसके आगे नीचे लिखे पद्य हैं
धर्मामृतादिशास्त्राणि कुशाग्रीयधियामिव । यः सिद्धयकं महाकाव्यं रसिकानां मुदेऽसृजत् ॥ ६ ॥ सोहमाशाधरः कण्ठमलंकर्तु सधर्मिणाम् । पञ्जिकालंकृतं ग्रन्थमिमं पुण्यमरीरचम् ।। ७ ॥ क्वार्षमब्धिः क मद्धीस्तैस्तथाप्येतछूतं मया । पुण्यैः सद्भयः कथारत्नान्युद्धत्य ग्रथितान्यतः ॥ ८ ॥
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