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जैनसाहित्य और इतिहास
श्रीरत्न्यामुदपादि तत्र विमलव्याघेरवालान्वया
च्छीसल्लक्षणतो जिनेन्द्रसमयश्रद्धालुराशाधरः ॥ १ ॥ सरस्वत्यामिवात्मानं सरस्वत्यामजीजनन् । यः पुत्रं छाहडं गुण्यं रांजतार्जुनभूपतिम् ।।२
" व्या रवालवरवंशसरोजहंस: काव्यामृतोघरसपानसुतृप्तगात्रः । सलक्षणस्य तनयो नयविश्वचक्षुराशाधरो विजयतां कलिकालिदासः" ।। ३ ।। इत्युदयसेनमुनिना कविसुहृदा योऽभिनन्दितः प्रीत्या । " प्रज्ञापुंजोऽसी" ति च योऽभिहितो मदनकीर्तियतिपतिना ॥ ४ ॥ लेच्छेशेन सपादलक्षविषये व्याप्ते सुवृत्तक्षतित्रासाद्विन्ध्यनरेन्द्रदोःपरिमलस्फूर्जत्रिवर्गोंजसि । प्राप्तो मालवमण्डले बहुपरीवारः पुरीमावसन् यो धारामपठजिनप्रमितिवाक्शास्त्र महावीरतः ।। ५ ।।
१-~-अर्थात् अपने आपको जिस तरह सरस्वती ( वाग्देवता) में प्रक्ट किया उसी तरह जिसने अपनी पत्नी सरस्वतीमें छाहड नामक गुणी पुत्रको जन्म दिया। ___ २ मूलाराधना टीका ( सोलापुर ) जिस प्रतिपरसे प्रकाशित हुई है, उसमें प्रशस्तिके ये चार ही पद्य मिले हैं और संपादक पं० जिनदास शास्त्रीने प्रशस्तिको अपूर्ण लिखा है । शायद आगेका पत्र गायब है।
३ त्रिषष्टिस्मृतिशास्त्रकी प्रशस्तिमें प्रारम्भके दो पद्योंके बाद · व्याघेरवाल' आदि पद्य न न होकर ' म्लेच्छेशेन' आदि पाँचवाँ पद्य है। उसके बाद ‘श्रीमदर्जुनभूपाल' आदि आठवाँ और फिर · योद्राग्व्याकरणाब्धि ' आदि नवाँ पद्य दिया है ।
४ म्लेच्छेशेन साहिबुदिनतुरुष्कराजेन । ---भव्यकुमुदचन्द्रिका टीका ।
इस म्लेच्छराजाको ‘ साहिबुद्दीन तुरुष्क ' बतलाया है । यह गजनीका बादशाह शहाबुद्दीन गोरी ही है । इसने वि० सं० १२४९ (ई० स० ११९२) में पृथ्वीराजको हराकर दिल्लीको अपनी राजधानी बनाया था। उसी वर्ष अजमेरको भी अपने अधीन करके और अपने एक सरदारको सारा कारोबार सोंपकर वह गजनी लौट गया था। शहाबुद्दीनने पृथ्वीराज चौहानसे दिल्लीका सिंहासन छीनते ही अजमेरपर धावा किया होगा, क्योंकि अजमेर भी पृथ्वीराजके अधिकारमें था और उसी समय सपादलक्ष देश उसके अत्याचारोंसे व्याप्त हो रहा होगा। इसी समय अर्थात् विक्रम संवत् १२४९ के लगभग पं० आशाधर मांडलगढ छोड़कर धारामें आये होंगे।