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देवनन्दि और उनका जैनेन्द्र व्याकरण
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होगा जो अभी तक अनुपलब्ध है। शिमोगा जिलेकी नगर तहसीलके ४६ वें शिलालेखमें लिखा है कि पूज्यपादने एक तो ( अपने व्याकरणपर ) जैनेन्द्र-संज्ञक न्यास और दूसरा पाणिनि व्याकरणपर शब्दावतार नामक न्यास बनाया । इसके सिवाय वैद्यकशास्त्र और तत्त्वार्थ-टीका भी लिखी । ___ यह निश्चय है कि पूज्यपाद केवल सूत्र-ग्रन्थ बनाकर ही न रह गये होंगे । अपनी मानी हुई अतिशय सूक्ष्म संज्ञाओं और परिभाषाओंका स्पष्टीकरण करनेके लिए उन्हें कोई टीका या वृत्ति अवश्य बनानी पड़ी होगी जिस तरह कि शाकटायनने अपने व्याकरणपर अमोघवृत्ति नामकी स्वोपज्ञटीका बनाई । ___ आचार्य विद्यानन्दने अष्टसहस्री ( पृष्ठ १३२ ) में 'प्यखे कर्मण्युपसंख्यानात् का ' यह वचन उद्धृत किया है । यह किसी व्याकरण ग्रन्थका वार्तिक है; परन्तु पाणिनिके किसी भी वार्तिकमें यह नहीं मिलता। अभयनन्दिकी महावृत्तिमें अवश्य ही " प्यखे कर्मणि का वक्तव्या” ( ४-१--३८) इस प्रकारका वार्तिक है; परन्तु अभयनन्दिकी वृत्ति विद्यानन्दसे पीछेकी बनी हुई है, इसलिए विद्यानन्दने यह वार्तिक अभयनन्दिकी वृत्तिसे नहीं किन्तु अन्य ही किसी ग्रन्थसे लिया होगा और वह स्वयं पूज्यपादकृत न्यास होगा । भाष्य-जैनेन्द्रके भाष्यका अभी तक पता नहीं लगा। आगे हम उपलब्ध टीकाग्रन्थोंका परिचय देते हैं
१-महावृत्ति। इसकी एक प्रति पूनेके भाण्डारकर रिसर्च इन्स्टिटयूटमें मौजूद है और एक प्रति बम्बईके सरस्वती-भवनमें भी है। पूनेकी प्रतिमें इसकी श्लोकसंख्या १२००० के लगभग है। प्रारंभके ३१४ पत्र एक लेखकके लिखे हुए
और शेष ७४ पत्र, चैत्र सुदी २ सं० १९३३ को किसी दूसरे लेखकके लिखे हुए हैं । प्रतिके दोनों ही भाग जयपुरके लिखे हुए मालूम होते हैं । कई स्थानोंमें १-न्यासं जैनेन्द्रसंशं सकल बुधनुतं पाणिनीयस्य भूयो
न्यासं शब्दावतारं मनुजततिहितं वैद्यशास्त्रं च कृत्वा । यस्तत्त्वार्थस्य टीकां व्यरचयदिह तां भात्यसौ पूज्यपाद
स्वामी भूपालवन्धः स्वपरहितवचः पूर्णदृग्बोधवृत्तः ।। २ नं० ५९० A और । सन् १८७५-७६ की रिपोर्ट ।