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जैनसाहित्य और इतिहास
होता है । सम्भव है कि अर्ध-दग्ध लेखकोंकी कृपासे इन टीका ग्रंथोंमें 'जैनेन्द्र' नाम शामिल हो गया हो । दूसरे यदि 'जैनेन्द्र' नाम हो भी, तो ऐसा कुछ अनुचित नहीं है। क्यों कि गुणनन्दिका प्रयत्न कोई स्वतंत्र ग्रंथ बनानेकी इच्छासे नहीं किन्तु पूर्वनिर्मित 'जैनेन्द्र'को सर्वांगपूर्ण बनानेकी सदिच्छासे है और इसीलिए उन्होंने जैनेन्द्रके आधेसे अधिक सूत्र ज्योंके त्यों रहने दिये हैं, तथा मंगलाचरण
आदि भी उसका ज्योंका त्यों रक्खा है। ___ हमारा विश्वास है कि गुणनन्दि इस संशोधित और परिवर्तित सूत्र-पाठको ही तैयार करके न रहे गये होंगे, उन्होंने इसपर कोई वृत्ति या टीका-ग्रन्थ भी अवश्य लिखा होगा, जो उपलब्ध नहीं है। सनातन जैनग्रंथमालामें जो जैनेन्द्र-प्रक्रिया छपी है, वह जैसा कि हम आगे सिद्ध करेंगे गुणनन्दिकी बनाई हुई नहीं है ।
जैनेन्द्रकी टीकायें पूज्यपादस्वामीकृत असली जैनेन्द्रकी इस समय तक केवल चार ही टीकायें उपलब्ध हैं-१ अभयनन्दिकृत 'महावृत्ति,' २ प्रभाचन्द्रकृत 'शब्दांभोजभास्कर न्यास', ३ आर्यश्रुतकीर्तिकृत 'पंचवस्तु प्रक्रिया', और ४ पं० महाचन्द्रकृत 'लघु जैनेन्द्र' । परन्तु इनके सिवाय इसकी और भी कई टीकायें होनी चाहिए। पंचवस्तु के अन्तके श्लोकमें जैनेन्द्र शब्दागम या जैनेन्द्र व्याकरणको महलकी उपमा दी है। वह मूलसूत्ररूप स्तम्भोंपर खड़ा किया गया है, न्यासरूप उसकी भारी रत्नमय भूमि है, वृत्तिरूप उसके किवाड़ हैं, भाष्यरूप शय्यातल है, टीकारूप उसके माल या मंजिल हैं और यह पंचवस्तु टीका उसकी सोपानश्रेणी है। इसके द्वारा उक्त महलपर आरोहण किया जा सकता है। इससे मालूम होता है कि पंचवस्तुके कर्ताके समयमें इस व्याकरणपर १ न्यास, २ वृत्ति, ३ भाष्य और ४ कई टीकाएँ, इतने टीका-ग्रन्थ भौजूद थे । न्यास-उक्त टीकाओंमेंसे 'न्यास' तो शायद स्वयं पूज्यपादका ही
१ सूत्रस्तम्भसमुद्धृतं प्रविलसन्न्यासोरुरत्नक्षिति
श्रीमद्वृत्तिकपाटसंपुटयुतं भाष्योऽथशय्यातलम् । टीकामालमिहारुरुक्षुरचितं जैनेन्द्रशब्दागमं प्रासादं पृथुपंचवस्तुकमिदं सोपानमारोहतात् ।।