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रामायण
हा ! राजकुमारी सीता के, फिर दर्शन कैसे पाऊंगी। फिर इसी विरह में घुल घुल कर मैं अपने प्राण गवाऊंगी ॥ दोहा (जनक)
रानी मन निश्चय धरो, धनुष चढ़ावे राम । पुण्य प्रबल बलवीर का, देखा मै संग्राम ॥ दोहा
रानी को संतोष दे, लिए भूप बुलवाय । मंडप की रचना करी, दिए धनुष रखवाय ॥ छन्द
स्वयंवर मंडप मे विराजे, आनकर सब भूपति । वरमाला डालू राम गल, ये ही सीता सोचती ॥ चिल्ला चढ़ाया धनुष का, यदि राम से न जायगा ! तो जीव मेरा भी कहीं, ढूंढा न तन में पायेगा ॥
दोहा
दिव्याभूषण पहन कर साथ सखी परिवार । धनुप पास जा पढ़ने लगी, मंत्र श्री नवकार दोहा
चढ़े धनुष श्री राम से, इस भव के वही नाथ । संबन्ध नहीं त्रियोग से, और किसी के साथ ॥ सीता के अनिन्द्य तन पर, जब दृष्टि सब ने डाली है । क्या नख शिख ढ़ला जिस्म, सांचे में अद्भुत झलक निराली कैसा भोलापन चेहरे पर अद्भुत ही रूप दमकता है । पुण्य उसी का जो व्याहेगा, असली रत्न चमकता है ॥ चंद्रगति मन सोच रहा, बस भामंडल ही व्याहेंगा । दर किनार है धनुप उठाना, पास न कोई आयेगा ||