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सीता स्वयम्वर
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यहां भवन मे बैठे जनक भूप; मन मे कुछ आति भारी है। यह हाल देखकर भूपति का, रानी ने गिरा उचारी है ।
। दोहा । सोये थे आनंद से, अब हो गये उदास । किस कारण पति ले रहे, लम्बे लम्बे श्वांस ।।
छन्द (जनक) क्या कहूं रानी तुझे, बस कुछ कहा जाता नहीं। अशुभ कर्म प्रकट हुये, यह दुःख सहा जाता नहीं ।। खेचर उठाकर रात, रथनुपुर था मुझको ले गया । चन्द्रगति भूपाल ने, यूपास आ करके कहा ॥ सीता को भामंडल से परणो, सब कहा समझाय कर । नही तो तेरी तरह सिया को, भी मै लाऊ उठाय कर ॥ अन्तिम स्वयंम्वर फैसला, कर धनुष दो लाकर धरे। मिथिला पुरी के बाहिर, आकर भूप ने डेरे करे ।।
दोहा सुनी अरुचिकर कभी, जनक भूप से बात । रानी के दिल पर हुआ, भीपण वज्राघात ।।
दोहा (रानी) कर्म सबर तुझको नहीं, लेकर पुत्र प्रधान । __ लेनी चाहे पुत्री का, बचे किस तरह प्राण ॥ स्वेच्छा से ब्याहे सुता, होता हर्षे अपार । बिन इच्छा लेवे कोई, दारुण दुःख अपार ।।
(रानी। रामचन्द्र से धनुष यदि, नहीं कहीं चढ़ाया जावेगा। तो विद्याधर वैताड़ गिरी पर, सिया को ब्याह ले जावेगा ।