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रावणका दिग्विजय।
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है, उससमय जलदेवता क्षुब्ध हो जाते हैं; और जलजन्तु पलायन कर जाते हैं । हजारों स्त्रियोंके साथ क्रीडा करके उस राजाने अब उस जलको छोड़ दिया है, इसलिए उस जल पूरने पृथ्वी और आकाशको प्लावित करते हुए वेगसे आकर उद्धताके साथ तुम्हारी इस देवपूजाको भी भिगो दिया है। बहा दिया है। वह देखो उस राजाकी स्त्रियोंका निर्माल्य पदार्थ तैर रहा है, वह मेरे कथनको पुष्ट करता है, वह उसके जल-क्रीडाकी निशानी है।"
उसकी ऐसी बातें सुन, रावणके हृदयमें अधिक क्रोधाग्नि भभक उठी; जैसे घृताहुतिसे अग्नि विशेषरूपसे जल उठती है। वह बोला:- " अरे ! मरने के इच्छुक उस राजाने, काजलसे जैसे देवदूष्य वस्त्र दूषित होता है वैसे, अपने अंगसे रेवाके जलको दूषित करके मेरी देवपूजाको भी दूषित कर दिया है । इसलिए हे राक्षस सुभटो! जाओ और मछुवा-मच्छीमार-जैसे मच्छीको पकड़ लाता है, वैसे ही उस वीर, मानी राजाको बाँधकर तत्काल ही मेरेपास ले आओ।
रावणकी आज्ञा सुनते ही राक्षसवीर नदीके किनारे किनारे दौड़ने लगे; वे ऐसे शोभते थे मानो रेवा नदीका उग्र प्रवाह बह रहा है। उनके वहाँ पहुँचनेपर, जैसे नवीन दूसरे हाथियोंके साथ हाथी युद्ध करते हैं, वैसेही सहस्रांशुके सैनिक वीर उन राक्षसवीरोंके साथ युद्ध करने लगे। मेघ जैसे ओलोंसे