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जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
है ? क्या वह जल छोड़नेवाला कोई मिथ्यादृष्टि है ? कोई विद्याधर है ? या कोई सुर है ? या कोई असुर है ?" रावणका सहस्रांशुको हराना; सहस्रांशुका
दीक्षा ग्रहण करना। उसीसमय किसी विद्याधरने आकर रावणसे कहा:"हे देव ! यहाँसे आगे थोड़ी दूर पर एक माहीष्मती नामकी नगरी है । वहाँ मूर्यके समान तेजस्वी सहस्रांशु, नामका महा पराक्रमी राजा राज्य करता है । एक हजार राजा उसकी सेवा करते हैं।
उसने जलक्रीडाका आनंद करनेके लिए, रेवाके जलको, सेतु बाँधकर, रोक लिया है।
'किमासाध्यं महौजसां ।' (बड़े पराक्रमी वीरोंके लिए क्या असाध्य है ?) हाथी जैसे हथनियोंके साथ क्रीडा करता है, वैसे ही सहस्रांशु अपनी एक हजार राणियोंके साथ सुख पूर्वक क्रीडा कर रहा है; और लाखों वीर कवच पहिन, हथियारोंसे सुसज्जित हो, रेवा नदीके दोनों किनारोंपर रक्षाके लिए. फिर रहे हैं । अपरिमित पराक्रमी उस राजाका ऐसा अपूर्व और अदृष्टपूर्व तेज है, कि उसको किसी रक्षककी भी आवश्यकता नहीं है । उसके सैनिक तो केवल शोभाके लिए-या कर्मकी साक्षीके लिए ही हैं। जब वह पराक्रमी राजा जलक्रीडा करते हुए पानी पर जोरेसे हाथों को पछाड़ता