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________________ २८ जैन रामायण द्वितीय सर्ग । कर्णको सिद्ध हुई। सिद्धार्था, शत्रुदमनी, निर्व्याघाता और आकाशगामिनी ये चार विद्याएँ विभीषणको सिद्ध हुई । जंबूद्वीपके पति अनाहतदेवने आकर रावणसे क्षमा माँगी । “बड़े पुरुषोंका अपराध किया हो तो उनसे क्षमा माँगना ही ( अपनी भलाईका ) उपाय है।" पहिले किये हुए विघ्नोंका प्रायश्चित्त करता हो ऐसा व्यक्त करते हुए, बुद्धिमान यक्षने वहीं पर एक 'स्वयंप्रभ ' नगर रावणके लिए बसा दिया। विद्या-सिद्धिके समाचार सुन उनके मातापिता और बन्धुभगिनी भी वहाँ आये । रावणादिने उनका सत्कार किया । मातापिताकी दृष्टिमें अमृतवृष्टि और बन्धुवर्गके हृदयोंमें आनंद उल्लास उत्पन्न करते हुए तीनों भाई वहीं रहने लगे। फिर रावणने छः दिनके उपवास करके दिशाओंका साधन करनेमें उपयोगी ऐसे चंद्रहास नामक श्रेष्ठ खड्गकी साधना की । रावणका मंदोदरी और अन्य कई कन्याओंके साथ ब्याह करना। उस समय वैताढ्य गिरिपर दक्षिणश्रेणीके आभूषण भूत 'सुरसंगीत' नामक नगरमें 'मय ' नामक विद्याधर -राजा राज्य करता था । उसके गुणोंकी धाम 'हेमवती' नामक पत्नी थी। उसकी कूखसे एक कन्या उत्पन्न हुई। उसका नाम 'मंदोदरी' था। जब वह पूर्ण यौवना हुई तब मय उसके योग्य वर खोजने लगा। समस्त विद्या
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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