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रावणका दिग्विजय। wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww __ यह सुन दाँतोंसे ओष्ठको चबाता हुआ रावण बोला:" हे माता ? तुम वज्रके समान कठोर मालूम होती हो; इसी लिए ऐसे शल्यको अबतक हृदयमें दाबकर बैठी हो। इन इन्द्रादि विद्याधरोंको मैं अपने भुजबलसे ही मर्दन कर .सकता हूँ तो फिर शस्त्रास्त्रोंकी तो बात ही क्या है ? वस्तुतः ये सब मेरे लिए एक तिनकेके समान हैं। यद्यपि भुजबलसे ही मैं शत्रुओंका संहार कर सकता हूँ; तथापि ऐसा न कर कुलक्रमागत विद्याका साधन कर लेना पहिले आवश्यकीय है । इस लिए हे जननी! आज्ञा दो कि मैं अपने अनुज बन्धुओं सहित जाकर उस निर्दोष विद्याका साधन करूँ।" माताने पुत्रोंके मस्तकको चम उन्हें विद्या. साधन करनेको जानेकी आज्ञा दी। रावण मातापिताको प्रणामकर अपने अनुज बन्धुओं सहित 'भीम' नामक वनकी और चला। उस वनमें सोते हुए सिंहोंके निश्वासोंसे आसपासके वृक्ष काँपते थे; गर्विष्ठ केसरिओंकी पूँछोंकी फटकारसे पृथ्वी फटी जाती थी; उल्लुओंके फूत्कारसे वृक्ष और गुफाएँ अति भयंकर लगते थे। नाचते हुए भूतोंके चरणाघातसे पर्वतके शिखरोंसे पत्थर टूट टूटकर गिरते थे । देवताओंकोभी भीत कर देनेवाले आपत्तिके स्थानरूप ऐसे भीम वनमें रावणने बन्धुओं सहित प्रवेश किया। तपस्वीके समान जटामुकटको धारणकर, अक्षसूत्र-माला-हाथमें ले, श्वेतवस्त्र पहिन, नासिकाके