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जैन रामायण दसवाँ सर्ग ।
इस मृगी के लिए परस्पर युद्ध करके अपने प्राण खोये ! इस भाँति परस्पर वैरके कारण वे भवभ्रमण करते रहे ।
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धनदत्त अपने भाईकी मृत्यु से बहुत दुखी हुआ और धर्म रहित भावोंसे इधर उधर भटकने लगा । एक रातको क्षुधातुर धनदत्तने कुछ साधुओंको देखा। उनके पास से उसने भोजन माँगा | उनमें से एक मुनिने कहाः " हे भाई ! मुनि लोग दिन में भी अन्नसंग्रह करके नहीं रखतेः हैं; फिर रातमें तो उनके पास अन्न हो ही कैसे सकता है ? हे भद्र ! तुझको भी रात में खान, पान नहीं करना चाहिए। क्योंकि ऐसे अंधकारमें अन्नादिमें रहे हुए जीवोंको कौन देख सकता है ? "
मुनिका बोध उसके हृदयको अमृत - सिंचन के समान सुखदायी जान पड़ा । वह श्रावक बना । आयु पूर्णकर मरा और सौधर्म देवलोक में देवता हुआ । वहाँसे चवकर, वह महापुर नगर में धारिणीकी कूखसे मेरु सेठके घर पद्मरुचि नामा पुत्र होकर जन्मा | श्रावक बना । एक वार पद्मरुचि घोड़ेपर चढ़कर गोकुलमें जा रहा था; दैव-योग से मार्गमें उसने एक बूढ़े बैलको मरणासन्न पड़े हुए देखा। वह दयालु हृदयी अपने घोड़ेसे उतरकर बैलके पास गया । . उसके कानमें उसने नवकार मंत्र सुनाया। नवकार मंत्र के प्रभावसे बैल मरकर, उस नगर के राजा छन्नच्छायाके घर श्रीदत्ता रानीकी कूखसे पुत्ररूपमें उत्पन्न हुआ । हृषभध्वज उसका