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जैन रामायण प्रथम सर्ग ।
इन्द्रकी सेनाको घबरा दिया । यह देखकर लोकपालों और सेनापतियों सहित युद्ध करनेके लिए इन्द्र आगे आया । इन्द्र, मालीके साथ और लोकपाल आदि सुमाली आदि सुभटोंके साथ युद्ध करने लगे। जीवनकी आशंका हो इस प्रकार दोनों ओरके वीर बहुत देर तक युद्ध करते रहे। ... 'जयाभिप्रायिणां प्रायः प्राणा हि तृणसन्निभाः ।' . (प्रायः जयाभिलाषी लोगोंको प्राण तृणवत मालूम होते हैं। ) दंभरहित युद्ध करते हुए इन्द्रने-मेघ जैसे बिजलीसे गोको मार डालता है वैसे ही-वजसे. मालीको मार डाला। मालीकी मृत्युसे राक्षस और वानर व्याकुल हो गये और सुमालीके साथ. सब पाताल लंकामें चले गये । इन्द्र 'कौशिका ' की कुक्षीसे जन्मे हुए 'वैश्रवाके ' पुत्र 'वैश्रमणको लंकाका राज्य दे. अपने नगरको लौट गया ।
रावण, कुंभकर्ण (भानुकर्ण) और विभीषणका जन्म।
पाताल लंकामें रहते हुए, सुमालीके 'प्रीतिमति' नामकी स्त्रीसे रत्नश्रवा नामक, एक पुत्र हुआ । जवान होनेपर वह एक वार विद्या साधनेके लिए कुसुमोद्यानमें गया । वहाँ वह अक्षमाला हाथमें ले, नासिकाके अग्र भागपर दृष्टि जमा जप करने लगा। उसकी स्थिरता देखकर ऐसा जान पड़ता था मानो कोई चित्र है । रत्नश्रया ऐसे जापकर रहा था उस समय, निर्दोष अंगवाली