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________________ ३८८ जैन रामायण आठवाँ सर्ग। उनको अकाल विहारी समझकर वंदना नहीं की। धुति आचार्यने उनको आसन दिया। उसी पर बैठ कर, उन्होंने पारणा किया । फिर उन्होंने कहा:-" हम मथुरासे आये हैं और वापिस वहीं जायँगे।" वे उड़कर अपने स्थानको चले गये। उनके जाने बाद द्युति आचार्यने उन जंघाचारण मुनियोंके गुणोंकी स्तुति की। सुनकर, उनके साधुओंकोउन्होंने उनकी अवज्ञा की थी इस लिए-पश्चत्ताप हुआ। यह बात सुनकर अर्हदृत सेठको भी पश्चात्ताप हुआ। फिर सेठ कार्तिक महीनेकी शुक्ला सप्तमीको मथुरामें गया। वहाँ चैत्य पूजा करके गुफामें मुनियोंके पास गया। उसने उनकी जो अवज्ञा की थी, उसके लिए-उसको उनके सामने प्रकट कर-उसने उनसे क्षमा याचना की। __यह खबर सुनकर कि, सप्तर्षियोंके प्रतापसे मथुरासे रोग नष्ट होगया है । शत्रुघ्न भी कार्तिककी पूर्णिमाको मथुरामें आया । उसने मुनियोंसे जाकर वंदना की और निवेदन किया कि-" हे महात्मा ! आप मेरे घर पधारकर आहारपानी ग्रहण कीजिए।" उन्होंने उत्तर दियाः" साधुओंको राज्य-पिंड नहीं कल्पता है।" शत्रुघ्नने फिर निवेदन किया:--" हे स्वामी ! आपने मुझपर अत्यंत उपकार किया है । आपहीके प्रभावसे मेरे राज्यमें जो दैविक रोग उत्पन्न हुआ था, वह शांत हो गया है । अतः मुझ पर और सारी प्रजापर अनुग्रह करके
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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