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जैन रामायण आठवाँ सर्ग |
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प्रहार करने लगा । जैसे कि शिकारी सिंहपर करता है । वाणोंके आघातसे व्याकुल होकर, मधु विचार करने लगा:- इस समय त्रिशूल मेरे हाथमें न आया इससे मैं शत्रुको न मार सका । न मैंने श्री जिनेन्द्रकी पूजा ही की, न चैत्य ही बनवाये और न दान पुण्य ही किया, इससे मेरा जन्म वृथा ही चला गया । " इस प्रकार विचार करता हुआ मधु - भावचारित्र अंगीकार कर, नवकार मंत्र का स्मर'ण करता हुआ-मृत्यु पाया और सनत्कुमार देवलोकमें जाकर, महर्द्धिक देवता हुआ । उस समय मधुके शरीरपर उसके विमानवासी देवने पुष्प - दृष्टि कर ' मधुदेव जय "पाओ' का जयघोष किया ।
शत्रुघ्नका पूर्वभव |
देवतारूपी त्रिशूल चमरेंद्र के पास गया और मधुको शत्रुघ्न ने छल से मारा है, यह हाल कह सुनाया । अपने मित्रवधके समाचार सुनकर, चमरेंद्र शत्रुको मारने के लिए चला । वेणुदारी नामा गरुडपतिने उससे पूछा:" तुम कहाँ जाते हो ?” उसने उत्तर दिया:- " मेरे मित्रको मारनेवाले शत्रुघ्नको - जो इस समय मथुरा में रहा हुआ है-मारनेके लिए जाता हूँ। "
वेणुदारी इन्द्र बोला:- " रावणको धरणेंद्र के पास से अमोघ विजय शक्ति मिली थी; उस शक्तिको भी उत्कृष्ट पुण्यशाली वासुदेव लक्ष्मणने जीत लिया है; और रावणको
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