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जैन रामायण आठवाँ सर्ग |
शांत कषायी बनकर, तुम विचरण करने लगे। कुछ काल बाद तुम दोनों-मुनि-फिरते हुए पुनः कोशांबी में आये । वहाँ उन्होंने वसंतोत्सव में नंदिघोष राजाको अपनी रानी इन्दुमती के साथ क्रीडा करते देखा । उन्हें देखकर, पश्चिम मुनिने नियाणा किया- 'मेरी तपस्याका यह फल होकि मैं इस प्रकार से क्रीडा करनेवाले राजाके घर जन्म लेखेँ । ' दूसरे साधुने बहुत कुछ समझाया मगर पश्चिम सुनिने उनकी बात नहीं मानी ।
समयपर मरकर, पश्चिम मुनि इन्दुमतीके गर्भ से पुत्ररूपमें पैदा हुए। उनका नाम रतिवर्द्धन हुआ । अनुक्रमसे युवक होनेपर रतिवर्द्धनको राज्यासन मिला । वह अनेक रमणियों से वेष्टित होकर अपने पिताहीकी भाँति विविध • प्रकारकी क्रीडाएँ करने लगा ।
प्रथम नामके मुनि विविध भाँतिके तपकर, नियाणा रहित मर, पाँचवें कल्पमें परमर्द्धिक देव हुए । अवधिज्ञानसे उन्होंने अपने भाई पश्चिमको कोशांबी नगरीमें राज्य और क्रीडा करते जाना, इस लिए उसको उपदेश देनेके लिए वे मुनिका रूप धरकर, वहाँ गये । रतिवर्द्धन राजाने - उन्हें आसन दिया । उन्होंने बन्धु स्नेहके वशमें होकर, उसका और अपना पूर्व भव कह सुनाया । सुनकर रतिवर्द्धनको जातिस्मरण ज्ञान हो आया; उसने संसारसे विरक्त होकर दीक्षा ले ली । मरकर वह भी ब्रह्मलोकमें देवता
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