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जैन रामायण छठा सर्ग।
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कौतुक देखनेके लिए हनुमान उसमें बँधा रहा । इन्द्रजीत हर्षित होकर उसको रावणके पास ले गया । विजयेच्छु राक्षस उसको हर्षित होकर देखने लगे।
रावण और हनुमानका संवाद। रावणने हनुमानसे कहा:- “हे दुर्मति ! तूने यह क्या किया ? विचारे रामलक्ष्मण तो जन्मसे ही मेरे आश्रित हैं । वनवासी, फलाहारी, मलिन शरीरी और किरातके समान अपना जीवन बिताने वाले मलिन वस्त्र धारी, यदि तुझपर प्रसन्न हो
जाने तुझपर प्रसन्न हो जायेंगे, तो भी तुझको क्या दे सकेंगे ? हे मन्द बुद्धी! क्या देखकर, तू रामलक्ष्मणके कहनेसे यहाँ
से यहाँ आया है कि-जिससे यहाँ पहुँचते ही तेरे प्राण संकटमें पड़गये हैं। भूचारी-पृथ्वीपर चलनेवाले-रामलक्ष्मण बहुत ही चतुर जान पड़ते हैं, कि जिन्होंने तुझसे ऐसा कार्य कराया है। मगर धूर्त लोग होते हैं वे दूसरोंके हाथोंसे ही अंगारे निकलवाते हैं। अरे ! पहिले तो तू मेरा सेवक था और अब दूसरेका सेवक हो कर आया है इसी लिए अवध्य है। मगर तुझे तेरे कृतकी थोड़ीसी सजा देनेहीके लिए तेरी इतनी विटंबना की गई है।"
हनुमानने उत्तर दिया:-" रे रावण ! मैं कब तेरा सेवक था और तू कब मेरा स्वामी था ? ऐसा बोलते हुए तू कैसे लज्जित नहीं होता है ! पहिलेकी बात है । तेरा सामंत खर अपने आपको बहुत बलवान समझता था,