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जैन रामायण छठा सर्ग ।
शत्रुका ऐसा बल देख, इन्द्रके समान पराक्रमी महेन्द्र राजा भी अपनी सेना और अपने पुत्रों सहित युद्ध करनेके लिए नगरसे बाहिर निकला। दोनोंके बीच, आकाशमें घोर युद्ध प्रारंभ हुआ; आहत सैनिकों के शरीरसे रक्त गिरने लगा; उनके शरीर गिरने लगे, ऐसा मालूम हो रहा था, मानो भयंकर उत्पातका - प्रलय कालका-मेघ बरस रहा है ।
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रणभूमिमें तीव्र गति से फिरते हुए हनुमानने शत्रुकी सेनाको नष्ट कर दिया; जैसे कि प्रबल वायु वृक्षोंको नष्ट कर देता है । महेन्द्र राजाका पुत्र प्रसन्नकीर्ति अपना, हनुमान के साथका, संबंध जाने विना, निःशंक होकर शस्त्र महार करता हुआ, हनुमानके साथ युद्ध करने लगा । दोनों समान बली और समान क्रोधी थे इस लिए एक दूसरेको, शस्त्र प्रहारसे, श्रमित करने लगा ।
युद्ध करते हुए हनुमानको विचार आया- " अहो ! मुझे faar कि, मैंने स्वामी के कार्य में विलंब करनेवाला यह युद्ध प्रारंभ किया है। क्षणवार में मैं इनको जीत सकता हूँ; परन्तु क्या करूँ ये तो मेरे मामेरेके हैं। " फिर सोचा - " यद्यपि मामा, नाना आदिसे युद्ध कर रहा हूँ तो भी जिस कार्यको प्रारंभ किया है, उसे पूरा करनेके लिए इन्हें जीतना ही होगा । "
ऐसा सोच, क्रोध कर, हनुमानने शस्त्र- वर्षा से प्रसन्न