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जैन रामायण पाँचवाँ सर्ग।
सुगुप्त मुनि बोले:-" यहाँ पहिले 'कुंभकारक' नामा नगर था, वहाँ यह पक्षी दंडक नामका राजा था। उसी समय श्रावस्ती नगरीमें 'जितशत्रु' नामका राजा राज्य करता था। उसके 'धारणी' नामा रानीसे दो सन्तान हुई थीं। एक पुत्र और दूसरी कन्या । पुत्रका नाम 'स्कंदक ' था और कन्याका नाम ' पुरंदरयशा। __उस लड़कीका ब्याह ' कुंभकारकट' नगरके राजा ' दंडक ' के साथ हुआ था।
एकवार दंडक राजाने जितशत्रुके पास, 'पालक' नाया एक ब्राह्मण दूतको किसी कार्यके लिए भेजा था। वह दुष्ट बुद्धि पालक जैनधर्मको दूषित करने लगा। उस समय उस दुराशय और मिथ्या दृष्टि पालकको ‘स्कंदक' कुमारने, सभ्य संवाद पूर्वक युक्तियों द्वारा निरुत्तर कर दिया। इससे सभ्य जनोंने उसका बहुत उपहास किया। पालकको इस घटनासे अत्यंत क्रोध चढ़ा। अन्यदा, राजाने उसको विदा किया। वह वापिस कुंभकरकट नगरमें पहुंचा।
कुछ काल बाद कंदकने विरक्त हो पाँच सौ राजपुत्रोंके साथ 'मुनिसुव्रत' प्रभुके पाससे दीक्षा ले ली। एकवार उन्होंने कुंभकरकट जाकर पुरंदरयशाको और उसके परिवारको उपदेश देनेकी आज्ञा चाही। - प्रभुने उत्तर दिया-“ वहाँ जानेसे परिवार सहित तुमको मरणान्त दुःख होगा।"