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जैन रामायण पाँचवाँ सर्ग।
उस समय वहाँ बैठा हुआ गरुडपति महालोचन देक बोला:-" हे राम ! तुमने बहुत अच्छा किया सो यहाँ आये । अब बताओ कि मैं तुम्हारे उपकारका बदला
रामने कहाः-" मुझे तो कुछ भी कार्य नहीं है। "
“मैं किसी तरह किसी समय तुमपर उपकार करूँगा।"' ऐसा कह, महालोचन देव अन्तर्धान हो गया।
यह खबर सुनकर वंशस्थलका राजा ' सुरप्रभ ' भी वहाँ मया; और उसने रामको नमस्कार कर उनकी उच्च प्रकारसे पूजा की । रामकी आज्ञासे उसने उस प्रर्वतपर अहंत प्रभुके चैत्य बनवाये; और तबहीसे वह पर्वत, रामके. नामसे, 'रामगिरि ' नामसे प्रसिद्ध हुआ। . रामका दण्डकारण्यमें पहुँचना, जटायु पक्षीका पूर्वभव ।
फिर रामचंद्र सुरप्रभ राजाकी सम्मति लेकर वहाँसे रवाना हुए। आगे चलकर निर्भीक हो रामने महाप्रचंड दण्डकारण्यमें प्रवेश किया। वहीं एक बड़े पर्वतकी गुफामें निवास कर, घरकी भाँति वे स्वस्थवासे उसमें रहने लगे।
एकवार भोजनके समय 'त्रिगुप्त' और 'सुगुप्त । नामा दो चारण मुनि आकाशमार्गसे वहाँ गये। वे दो.. मासके उपवासी थे और पारणाके लिए वहाँ गये थे। .. राम, सीता और लक्ष्मणने उनको भक्तिपूर्वक बंदाः की। फिर सीताने यथोचित अन्नजलसे मुनिको प्रतिलामा