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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग।
जग।
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(मानके नष्ट होने पर जीवित रहना मृत्युसे भी विशेष दुःखरूप है।)
इस प्रकार विचार, मरनेका निश्चय कर, उस मनस्विनीमानिनी-ने अंदरके घरमें जा वस्त्रसे फाँसी खाना प्रारंभ किया। उसी समय राजा दशरथ वहाँ जा पहुँचे । उसको वैसी स्थितिमें देख, उसकी मरणोन्मुखताको देख, भयभीत हो, राजाने उसको अपनी गोदमें बिठाया और पूछा:" प्रिये ! तेरा क्या अपमान हुआ है ? जिससे तूने ऐसा. दुस्साहस किया है ? दैवयोगसे मेरे द्वारा तो तेरा कोई. अपमान नहीं हुआ है न ?” __ वह गद्गद कंठ होकर बोली:-" आपने सब रानियों के पास तो स्नात्रजल भेजा; परन्तु मेरे पास नहीं भेजा।" कौशल्या इतना ही कहने पाई थी कि, इतनेहीमें वह वृद्ध कंचुकी-अन्तःपुरका अधिकारी-यह कहता हुआ वहाँ जा. पहुँचा कि-" राजाने यह स्नात्रजल भेजा है।"
राजाने तत्काल ही उस पवित्र जलसे रानीके मस्तकका अभिसिंचन किया-जल सिर पर डाला । फिर राजाने कंचुकी से पूछा:-" तू इतनी देरसे क्यों आया ?"
कंचुकी बोला:-" स्वामी ! इसमें, सर्व कार्यों में अस. मर्थ, मेरी वृद्धावस्थाका अपराध है। आप स्वयं मेरी ओर देखिए।"