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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग ।
अनुक्रमसे दोनों बड़े होगये । दोनों नीलांबर और पीतांबर पहिनकर चरण- पातसे पृथ्वीतलको कँपाते हुए चलने लगे । मानो साक्षात मूर्तिमान दो पुण्यराशि हों,. वैसे उन्होंने कलाचार्यको मात्र साक्षी रूपही रखकर, सारी कलाएँ संपादन करलीं । वे महा पराक्रमी वीर मुक्का मारकर जैसे बरफका चूराकर देते हैं वैसे ही, बड़े बड़े पर्वतोंको मुका मारकर चूरकर देते थे। जब वे व्यायाम शाला में व्यायाम करते हुए धनुष बाणको चिल्लेपर चढ़ाते थे, उस समय सूर्य भी, इस आशंका से काँप उठता था कि, कहीं मुझको न वेध दें। वे अपने भुजबल मात्रही से शत्रु-ओंके बलको तृणके समान समझते थे । उनके शस्त्रास्त्रोंके - सम्पूर्ण कौशल से और उनके अपार भुजबलसे, राजादशरथ अपने आपको देवों और असुरोंसे भी अजेय
समझता था !
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कुछकाल बीतने पर राजा दशरथको अपने पुत्रोंके परा-क्रमपर धीरज आया, इस लिए वह इक्ष्वाकु राजाओंकी राजधानी अयोध्या नगरीमें गया । दुर्दशामेंसे मुक्त बना -हुआ दशरथ, बादलोंमेंसे निकले हुए सूर्यके समान प्रता-पसे प्रकाशित होता हुआ राज्य करने लगा । .
कुछ समय पश्चात् कैकेयी राणीने शुभस्वझसे सूचित भरतक्षेत्रके आभूषणरूप भरत राजाको जन्म दिया । सुप्रभा भी - जिसकी भुजाओंका पराक्रम शत्रुम-शत्रुना