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१६२ जैन रामायण चतुर्थ सर्ग । समान अखंड पराक्रमी, शीघ्रवेधी दशरथने शत्रुओंके एक एक रथको खंडित करना प्रारंभ किया।
इस भाँति दशरथ राजाने सारे भूपतियोंको परास्त कर जंगम पृथ्वीके समान कैकेयीके साथ ब्याह किया । फिर रथी दशरथने उस नवोढा रमणीसे कहा:-" हे देवी ! मैं तेरे सारथिपनसे प्रसन्न हुआ हूँ, इसलिए कुछ वरदान माँग।"
कैकेयीने उत्तर दिया:-" हे स्वामी ! समय आवेगा तब मैं वरदान माँग लँगी, तब तक आप इसको धरोहरकी भाँति अपने पास रखिए।" - राजाने स्वीकार किया। फिर शत्रुओंसे जीती हुई सेना सहित, असंख्य परिवारवाला दशरथ राजा, लक्ष्मीके समान कैकेयीको लेकर राजगृह नगरमें गया; और जनक राजा अपनी राजधानी मिथिलामें चला गया।
'समयज्ञा हि धीमंतो, न तिष्ठति यथा तथा।' (समयको जाननेवाले बुद्धिमान योग्य रीतिसे ही रहते हैं; जैसे तैसे नहीं रहते ।)
दशरथ राजा मगधपतिको जीतकर राजगृह नगरमें ही रहा। रावणकी शंकासे अयोध्या नहीं गया । पीछेसे अपराजिता आदि अपनी राणियोंको भी उसने वहीं बुला लिया।