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________________ जैन रामायण चतुर्थ सर्ग। .....wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmmmmmmmmmmmmmmmer सिंहासनपर बिठाकर, 'विमल ' मुनिके पाससे दीक्षा लेली। नरोंमें सिंहके समान नघुष राजाके 'सिंहिका ' नामा एक स्त्री थी। उसके साथ क्रीडा करते हुए नघुष अपने पिताका राज्य चलाने लगा। एकवार नघुष सिंहिकाको अपने राज्यमें छोड़कर उत्तरा पथके राजाओंको जीतनेके लिए गया । उस समय दक्षिणापथके राजाओंने यह सोचकर अयोध्यापर चढ़ाई कर दी कि, अभी नघुष राज्यमें नहीं है । चलो हम उसका राज्य ले लें। 'छलनिष्ठा हि वैरिणः ।' (शत्रु सदा छल-निष्ठ ही होते हैं।) सिंहिका राणीने पुरुषोंकी भाँति उनका सामना किया और उनको परास्त कर अपने राज्यसे निकाल दिया। 'किं सिंही हन्ति न द्विपान् ?' — (क्या सिंहनी हाथियोंको नहीं मारती है ? ) उत्तरापथके राजाओंको जीत कर नघुष वापिस अयोध्यामें गया। वहाँ जाकर उसने, सिंहिकाने दक्षिणापथके. राजाओंको परास्त किया था सो बात सुनी । सुनकर वह सोचने लगा:-" मेरे जैसे पराक्रमीके लिए भी यह दुष्कर है। फिर इसने यह कार्य कैसे किया ? इसमें स्पष्टतया रानीकी धृष्टता जान पड़ती है । महान कुलमें जन्मी हुई स्त्रियोंको ऐसा कार्य करना उचित नहीं है । जान
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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