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जैन रामायण चतुर्थ सर्ग ।
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कषायवर्जित ये-पिता, पुत्र-महामुनि हो, पृथ्वीतलको पवित्र करते हुए, एक साथ विहार करने लगे।
पुत्रवियोगसे सहदेवीको अत्यंत दुःख हुआ। इसलिए वह आर्तध्यानमें रत होकर मरी और किसी गिरिकंदरामें जाकर सिंहनी बनी।
कीर्तिधर और सुकोशल मुनिका मोक्षगमन । मनको दमन करनेवाले, निज शरीरसे भी निस्पृह, और स्वाध्याय ध्यानमें तत्पर कीर्तिधर और सुकोशल मुनि, चातुर्मास निर्गमन करनेके लिए, एक पर्वतकी गुफामें स्थिर आकृति होकर रहे। चौमासा उतरा तब दोनों मुनि पारणाके लिए चले । मार्गमें जाते हुए यमदूतीके समान उस दुष्टा व्याघ्रीने उनको देखा । तत्काल ही वह व्याघ्री मुख फाड़कर सामने दौड़ आई।
'दूरादभ्यागमस्तुल्यो दुहृदां, सुहृदामपि ।' (दुहृद और सुहृदजनोंका दूरसे आना समान ही होता है।)
व्याघ्री पासमें आकर ऊपर गिरनेको तैयार हुई। मुनि वहीं कायोत्सर्ग कर, धर्मध्यानमें लीन हो गये । वह व्याघ्री पहिले विद्युतकी तरह सुकोशल मुनिपर पड़ी। उसने दूरसे दौड़कर आघात किया था इससे वे पृथ्वीपर मिर गये । उसने अपनी नखरूपी अंकुशसे उनके चमडेको चर्रसे फाड़ दिया । फिर वह मरुदेशकी पथिकामुसाफिर-खी जिस भाँति तृषार्त होकर पानी पीती है,