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जैन रामायण तृतीय सर्ग ।
अंजनाको समझा, उसको रोनेसे रोक, हनुमानसहित उसको साथमें ले, प्रतिसूर्य पवनंजयकी खोजमें चला। वह भी फिरता फिरता भूतवनमें पहुँचा। प्रहसितने अश्रुपूर्ण नेत्रोंसे उसको आते देखा । उसने तत्काल ही जाकर प्रहलाद और पवनंजयको, अंजना सहित प्रतिसूर्यके आनेकी खबर दी।
प्रतिसूर्य और अंजनाने, दूरहीसे विमानमेंसे उतरकर प्रहलादको प्रणाम किया । पास आनेपर प्रतिसूर्यसे प्रहलाद बाथ भरके मिला; फिर वह अपने पोते हनुमानको गोदमें ले-हर्षोत्फुल्ल हो बोला:-" हे भद्र प्रतिसूर्य ! मैं दुःख समुद्रमें अपने कुटुंब सहित डूबता था । तुमने मुझको बचा लिया। इसलिए तुम मेरे सब संबंधियोंमें अग्रसर हो; बंधु हो । परंपरागत वंशवृक्षकी शाखा-सन्तति-की कारण भूत मेरी पुत्रवधूकी-जिसको मैंने विनाही दोष घरसे निकाल दिया था-तुमने रक्षाकी यह बहुत ही श्रेष्ठ किया। __पवनंजय अंजनाको देखकर दुःखसे निवृत्त होगया; जैसे कि समुद्रका ज्वारभाटा निवृत्त हो जाता है। शोकानि शान्त होजानेसे उसका हृदय बहुत प्रफुल्लित हुआ। सारे विद्याघरोंने आनंदसागरमें चंद्ररूप बहुत बड़ा उत्सव किया। पीछे वे सब ही प्रसन्नता पूर्वक हनुपुरमें गये; चलते हुए उनके विमान, पृथ्वीपर खड़े हुए मनुष्योंको ऐसे