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(१६) शित करनेके लिए न दे सके । कारण यह है कि, हम किसी ऐसे पुस्तक प्रकाशकका नहीं जानते थे कि, जो हिन्दी भाषाके श्वेतांबर ग्रंथ प्रकाशित करता हो । दैविक विपत्तिमें पड़जानेके कारण, हस्तलिखीत जीव विचारकी पुस्तक-जो हमने लिखी थी-और एक तत्वचर्चाकी नोट बुक-जिसमें कुछ तात्विक विषयोंके प्रश्न और उनके उत्तर -थे-खोये गये । हमें भी कई विपत्तियोंका मुकाबिला करना पड़ा। अस्तु।
श्वेतांबर समाजका बहुत बड़ा भाग राजपूतानेमें है। राजपूतानाकी प्रधान बोली हिन्दी है । उसी भाषामें श्वेतांबर आम्नायके ग्रंथोका अभाव हरेक धर्मप्रेमीको जरूर खटकता है । हाँ इतना है कि जो धर्मकी कुछ परंवाह नहीं करते हैं, वे इन बातोंकी भी कुछ परवाह नहीं करते हैं। इतना ही क्यों ? वे इन बातोंको फिजूल भी समझते हैं। मौका मिलनेपर ऐसे प्रयत्नोंकी वे निन्दा भी करते हैं । हमें भी ऐसे व्यक्तियोंसे मिलनेका काम पड़ा है। और उनसे उल्टी सीधी बातें सुननी पड़ी हैं।
मगर ऐसे व्यक्तियोंसे-धर्मविमुख लोगोंसे-डर कर अपना प्रयत्न छोड़देना कायरता है; धर्मविमुख होजाना है । यही सोचकर हमने अपना प्रयत्न किया है। इस प्रयत्नको पूर्ण करनेमें जिन लोगोंने हमें खास तरहसे उत्साह प्रदान किया है-जिनके नाम धन्यवादके पृष्ठमें आगये हैं-उनके हम कृतज्ञ हैं। तीन व्यक्तियोंके हम खास तरहसे कृतज्ञ हैं। (१) धामकनिवासी सेठ केसरीमलजी गूगलिया (२) दारव्हा निवासी सेठ कुंदनमलजी कोठारी और (३) बंबईनिवासी पंडित उदयलालजी कासलीवाल । क्योंकि प्रथम महाशयने सवासौ प्रतियाँ एक साथ खरीद कर और दूसरे और तीसरे महाशयने अमुक समयतकके लिए रुपयोंकी सहायता देकर, इस ग्रंथको प्रकाशित करनेका कार्य बहुत सरल बना दिया