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जन रामा
जैन रामायण तृतीय सर्ग। लीन एक मुनिराजके दर्शन किये। उसने उनके पाससे शुद्ध बुद्धिसे धर्म सुना । उसको प्रतिबोध लगा जिससे उसने सम्यक्त्व व विविध प्रकारके नियम ग्रहण किये ।
तबहीसे उसने मुनियोंको योग्य और अनिंदित दान देना प्रारंभ किया। वह तप और संयममें ही एक निष्ठा रखता था, इस लिए वह कालक्रमसे मरकर दूसरे कल्पमेंदेवलोकमें-परमर्द्धिक देवता हुआ । वहाँसे चवकरआकर-जंबुद्वीपमें मृगांकपुरके राजा वीरचंदकी। भार्या प्रियंगु लक्ष्मीके गर्भसे पुत्र रूपसे जन्मा, और "सिंहचंद्रके' नामसे प्रसिद्ध हुआ, फिर वह जैन धर्मको स्वीकार, पाल, क्रमयोगसे मरकर देव हुआ । वहाँसे चवकर इस वैताढ्य गिरिपर एक 'वरुण' नामका नगर है; उसमें 'सुकंठ' राजाकी राणी 'कनकोदरीके' गर्भसे 'सिंह वाहन' नामक पुत्र हुआ। बहुत दिनोंतक राज्य कर 'श्री विमलनाथ' प्रभुके तीर्थमें ' लक्ष्मीधर' मुनिके 'पाससे उसने व्रतग्रहण किया-दीक्षा ली । दुष्कर तपस्याकर, मृत्युको पा वह लांतक देवलोकमें देवता हुआ। अब वहाँसे चवकर वह तेरी सखी अंजनाके उदरमें आया है । यह पुत्र गुणोंका स्थान, महा पराक्रमी, विद्याधरोंका राजा, चरमदेही और पाप रहित मनवाला होगा।
अंक तू अपनी सखीके पूर्व भव सुन । कानकपुर । ममेरमें "कनकस्थ ' नामक राजा था। वह सब महारथि