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________________ १२२ जैन रामायण तृतीय सर्ग । wwwwwwwwwwwwwww करती हुई वहाँसे चल दी। उसकी दुर्दशाको लोग दुखी. होकर देखने लगे। क्षुधातृषासे पीडित, थकी हुई; निःश्वास डालती हुई आँसू बहाती हुई दर्भसे बिंधे हुए पैरसे जो रक्त निकल रहा था उससे भूमिको रँगती हुई दो दो कदम चलकर पड़ती हुई और वृक्ष वृक्षपर ठहर कर विश्राम लेती हुई, अंजना दिशाओं विदिशाओंको भी रुलाती हुई दासीके साथ चली जा रही थी। जिस ग्राममें या नगरमें वह जाती थी, वहींसे वह निकाल दी जातो थी; क्यों कि वहाँ पहिलेहीसे राजपुरुषोंने जाकर ऐसा प्रबंध कर दिया था। इससे उसको किसी भी जगह रहनेको स्थान नहीं मिला। . .. अंजनाका पूर्वभव। . . . भटकती हुई अंजना एक भारी वनमें जा पहुंची। वहाँ पर्वत श्रेणीके बीच एक वृक्षके नीचे बैठी और विलाप करने लगी:--" हाय ! मैं कैसी मंद भाग्या हूँ कि, गुरुजनोंने भी मुझको, अपराधकी जाँच किये विना दंड दे दिया। हे सासू केतुमती ! तुमने अच्छा किया कि, अपने कुलमें कलंक न लगने दिया । हे पिता ! संबंधीके भयसे आपने भी अच्छा सोचा । दुःखित स्त्रियोंके लिए माताएँ आश्वासन स्थान होती हैं, परन्तु माता ! तुमने भी पतिकी इच्छाका अनमरणार गरी उपेक्षा की। हे भाई!
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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