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________________ ११६ जैन रामायण तृतीय सर्ग। वेरी ऐसी दुर्दशा हुई है। शायद है कि, तू अब तक मर भी जाती; परन्तु मेरे भाग्यके योगसे जीवित रही है।" इस प्रकारसे बोलते हुए, अपने पतिको पहिचानकर, लज्जावती अंजना पलंगकी ईसका सहारा लेकर, खड़ी होगई । पवनंजय उसको, जैसे हाथी लताको अपनी सूंडमें पकड़ता है वैसे ही, वलयाकार भुजासे पकड़ बगलमें दवा पलंगपर बैठ गया और बोला:-" हे प्रिये ! मुझ क्षुद्रबुदिने तेरे समान निरपराधिनी स्त्रीको दुःख दिया, उसके लिए मुझको क्षमा करो।" पतिके ऐसे वचन सुनकर अंजना बोली:-" हे नाथ ! ऐसा न कहिए; मैं तो आपकी सदाकी दासी हूँ। इस लिए मुझसे क्षमा माँगना अनुचित है। .. प्रहसित और वसंततिलका बाहिर चले गये । कारण 'रहस्थयोर्हि दम्पत्योर्न च्छेकाः पार्श्ववर्तिनः ।' . . (जब दंपती एकांतमें मिलते हैं तब चतुर पासवान वहाँसे चले जाते हैं । ) , पवनंजय और अंजना स्वेच्छापूर्वक रमण करने लगे। रात रसके आवेशमें एक घड़ीके समान बीत गई। प्रभात होते देख पवनंजयने कहा:- " हे. कान्ता ! मैं विजय करनेके लिए जाता हूँ । यदि मुरुजनोंको खबर १.पास रहनेवाले, मित्र, सखी दास दासी आदि।
SR No.010289
Book TitleJain Ramayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKrushnalal Varma
PublisherGranthbhandar Mumbai
Publication Year
Total Pages504
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size31 MB
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