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जैन रामायण तृतीय सर्ग |
बाळा अपने महलमें गई और जाकर जलभेदित नदी तट की भाँति पृथ्वीपर गिर गई ।
पवनंजय वहाँसे उड़कर मानस सरोवर पर गया । संध्या हो जानेसे उसने वहीं डेरे डाले, और एक महल बनाकर उसमें निवास किया । क्योंकि विद्याधरोंकी विद्या सारे मनोरथोंको पूर्ण करनेवाली होती है । '
उस पलंगपर पवनंजय अपने महल में बैठा हुआ था । वहाँ मानस सरोवर के किनारे पर प्रिय वियोग से पीडित एक चक्रवाकीको उसने देखा । देखा - पक्षिणी प्रथम गृहण की हुई मृणाललताको भी खाती नहीं हैं; जल शीतल है, तो भी वह उसको उबलते हुए जलके समान मालूम हो रहा है। हिमांशु - चंद्रमा की हिम किरणें - चाँदनी भी उसको अग्निज्वालाकी समान दुःखदाई जान पड़ रही है और वह करुण स्वरमें रुदन कर रही है ।
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उस पक्षिणीकी ऐसी दशा देख, पवनंजय सोचने लगा - " ये चकवियाँ दिनभर अपने पतियोंके साथ रहती हैं। केवल रात्रिमें ही इनका वियोग होता है, तो भी उस अल्पवियोगको ये नहीं सह सकती हैं। तब ब्याह कर तें ही जिसका मैंने त्याग किया है: परखीकी भाँति जिसके साथ मैंने बात भी नहीं की है; रवाना होते समय भी जिसकी मैंने सँभाल नहीं ली है; जो पर्वत के समान दुःखसे दबी हुई है और जिसने मेरे समागमका थोड़ासा भी सुख
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