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जैन रामायण तृतीय सर्ग ।
युद्ध करने लगा | वरुण के वीर पुत्र, महान युद्ध कर, खरदूषणको बाँध, अपने नगरमें ले गये । इससे राक्षससेना सब तितर वित्तर हो गई । इस जीत से वरुण भी अपने आपको कृतार्थ मानता हुआ, वापिस नगरमें चला गया ।
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अब रावणने विद्याधरोंके प्रत्येक राजाको बुलाने के लिए दूत भेजे हैं । तदनुसार मैं भी आपके पास आया हूँ ।
दूतके वचन सुनकर, प्रहलाद राजा रावणकी सहायताके लिए जाने को तैयार हुआ । उसी समय पवनंजय वहाँ जा पहुँचा । उसको सब हाल मालूम हुआ । उसने पिता से कहा:- " हे तात ! आप यहीं रहिए । मैं जाकर रावणके सब मनोरथ पूर्णकर आऊँगा । मैं आपका पुत्र हूँ ।
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आग्रह पूर्वक पिताकी सम्मति ले सबलोगों से प्रेम पूर्वक विदा हो पवनंजय वहाँसे जाने को तैयार हुआ । पतिके यात्रार्थ जानेकी खबर सुन, अंजनासुंदरी भी उत्कंठित हो - आकाश के शिखर से देवी उतरती है वैसे- अपने महल से उतर कर नीचे आई और अपने पतिके दर्शन करनेके लिए अनिमिष नेत्रसे द्वारकी ओर देखती हुई, अस्वास्थ्य-पीडित हृदयसे स्तंभका सहारालेकर पुतलीकी तरह खडी हो गई ।
पवनंजयने चलते वक्त अंजनाको देखा। देखा - द्वारके स्तंभसे सहारा लेकर खड़ी हुई अंजनाका शरीर बीजके