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हनुमानकी उत्पत्ति और वरुणका साधन । १०७ wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwmom अपने नगरको चले चलें। क्योंकि जो भोजन अपनेको अच्छा नहीं लगे, वह कितना ही स्वादिष्ट हो, तो भी अपने किस कामका है ?
इतना कहकर पवनंजय चलनेको उद्यत हुआ। प्रहसित ने उसको जबर्दस्तीसे रोक लिया; और शान्तिसे इस तरह समझाना प्रारंभ किया। ___ " हे मित्र ! जो कार्य हम स्वीकार लेते हैं, उसको पूर्ण न करना भी महापुरुषोंके लिए अनुचित है; तब जो कार्य अनुल्लंघ्य है; जिसको गुरुजनोंने स्वीकार किया है, उसको उल्लंघन करनेकी तो बात ही कैसे की जा सकती है ? गुरुजन कीमत लेकर बेच दें या कृपा करके किसीको दे दें, तो भी सत्पुरुषोंके लिए तो वह प्रमाण है-मान्य है। उनके लिए दूसरी कोई गति ही नहीं है। फिर इस अंजनासुंदरीमें तो एक तृण बराबर भी दोष नहीं है। सुहृद् जनका हृदय ऐसे दोषके आरोपसे दूषित हो जाता है। तेरे और उसके मातापिता महात्माकी भाँति प्रख्यात हैं। इतना होने पर भी हे भ्राता! तू स्वच्छंद वृत्तिसे यहाँसे चले जानेका विचार कर, लज्जित क्यों नहीं होता है ? तू क्या उन्हें लज्जित करना चाहता है ?"
प्रहसितके ऐसे वचन सुन, हृदयमें शल्य होनेपर भी पवनंजय वहीं रहा।