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जैन रामायण तृतीय सर्ग।
लगा-" विद्युत्मभ अंजनसुंदरीको प्रिय है, इसी लिए वह दूसरी. सखीको बोलनेसे नहीं रोकती है।"
इस विचारसे उसके हृदयमें क्रोधका उदय हो आया; जैसे कि अंधकारमें किसी निशाचरका उदय हो आता है । वह तत्काल ही अपना खड्ग खींचकर यह बोलता हुआ, आगे बढ़ने लगा कि, विद्युत्लभको वरनेकी और उसको वरानेकी इच्छा रखनेवाले दोनोंको इसी समय मैं यमधाम पहुँचा देता हूँ।"
प्रहसितने पवनंजयको पकड़ लिया और कहा:-"हे. मित्र ! क्या तू नहीं जानता कि, स्त्री अपराधिनी होने पर भी गउकी भाँति अवध्य है और अंजनासुंदरी तो सर्वथा निरपराधिनी है। इसने सखीको बोलते नहीं रोका इसका कारण उसकी लज्जा है। इससे यह न समझ लेना चाहिए कि वह विद्युत्मभको चाहती है, तुमको नहीं चाहती है।"
प्रहसितने आग्रहपूर्वक उसको रोका । दोनों वहाँसे अपने स्थानपर आये । पवनंजय दुःखी हृदयसे अनेक प्रकारके विचार करता हुआ, रातभर जागता रहा । प्रातःकाल ही उसने उठकर अपने मित्रसे कहा:-"मित्र ! इस स्त्रीके साथ ब्याह करना व्यर्थ है। क्योंकि एक सेवक भी यदि अपनेसे विरक्त होता है, तो वह आपत्तिका कारण हो जाता है, तब फिर विरक्त स्त्रीका तो कहना ही क्या है ? अतःचलो। हम लोग, इस कन्याका त्याग कर