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जैन रामायण द्वितीय सर्ग । बच गया। मगर मुनिको सतानेके पापसे, मुनिका तिरस्कार करनेसे, तू बहुत समय तक संसारमें भ्रमण करता रहा । किसी भवमें तूने शुभ कर्मका उपार्जन किया जिससे तू सहस्रारका पुत्र यह इन्द्र हुआ है । रावणसे तू तिरस्कृत हुआ सो यह तूने मुनिको दुःख दिया; उनका तिरस्कार किया; उसका फल तुझको मिला है।
कर्म, कीड़ीसे लेकर इन्द्र पर्यन्त सबको उनके कियेका फल अवश्यमेव, देता है । चाहे जल्दी दे या देरमें । संसारका यही नियम है । इस प्रकारसे अपना पूर्व वृत्तांत सुन इन्द्रने अपने पुत्र 'दत्तवार्य को राज्य देकर दीक्षा ले ली
और फिर वह उग्र तप कर मोक्षमें चला गया। ... रावणका अपनी मृत्युके कारण जानना। ___ एक बार रावण · अनंतवीर्य ' नामक मुनिको-जिनको केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ था-वंदना करनेके लिए ' स्वर्णतुंग गिरिपर गया । वंदना करके रावणने, अपने योग्य स्थानपर बैठकर, कानोंके लिए अमृतकी धाराके समान, धर्मदेशना सुनी । देशना हो चुकने पर रावणने पूछा:
भगवन् ! मेरी मृत्यु किस कारणसे और किसके हाथ से होगी ?" '' भगवन् महर्षिने उत्तर दिया:-" हे रावण ! परस्त्रीके दोषसे, भविष्यमें होनेवाले वासुदेवके हाथसे तेरी-प्रतिवासुदेवकी-मृत्यु होगी।"