________________
७०
जैन रामायण द्वितीय सर्ग ।
(सच्ची या झूठी, चाहे जैसी ही प्रसिद्धि मनुष्योंको जय दिलाया करती है।) एक बार फिरता हुआ, मैं उस नगरीमें चला गया। वहाँ मैंने पर्वतको, अपने बुद्धिमान शिष्योंको. ऋग्वेदका पाठ पढ़ाते हुए, देखा । उसमें 'अजैर्यष्टव्यं । शब्द आया । उसका उसने अर्थ किया- 'बकरेसे यज्ञ करना' यह सुनकर मैं उसके पास गया और बोला:"भाई ! तू भ्रांतिसे ऐसे क्या कह रहा है-भूलसे गलत अर्थ क्यों बता रहा है ? गुरुजीने हम लोगोंको 'अज' शब्दका अर्थ बताया है, तीन वर्षका पुराना धान्य-ऐसा धान्य जो बोनेसे नहीं उगे । ' अज' शब्दकी व्युत्पत्ति भी इसी तरहसे है-' न जायते इति अजाः । जो उत्पन्न नहीं होते वे अज कहलाते हैं । इस प्रकारसे अपने गुरुने जो व्याख्या बताई थी उसको तू किस हेतुसे भूल गया है ?"
पर्वतने उत्तर दिया:-" मेरे पिताने ' अज' शब्दका अर्थ कभी ऐसा नहीं बताया था। उन्होंने तो ' अज' शब्दका अर्थ बकरा ही बताया था। और निघंटु कोषमें भी — अज' शब्दका अर्थ ऐसा ही है.।"
मैंने कहा:-" शब्दोंके अर्थोकी कल्पना मुख्य और गौण ऐसे दो प्रकारसे होती है । गुरुने यहाँ गौण अर्थ बताया था। गुरु सदैव धर्मका ही उपदेश करनेवाले होते हैं; और जो वचन धर्मात्मक होते हैं, वे ही वेद कहलाते