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(५३२) स्वामि दरिसण समो, निमित लही निर्मलो,जो उपा दान ए शुचि न थाशे ॥ दोष को वस्तुनो, अहवाल यम तणो, स्वामी सेवा सही निकट लाशे ॥ ४ ॥ ॥ ता० ॥ स्वामि गुण उलखी, स्वामिने जे नजे,दरि सण शुक्ता तेह पामे ॥ ज्ञान चारित्र तप, वीर्य न नासथी, कर्म जीपी वसे मुक्तिधामें ॥५॥ ता० ॥ जग त वत्सल, महावीर जिनवर सुणी,चित्त प्रनु चरणने शरण वास्यो॥ तारजो बापजी, बिरुद निज राखवा, दासनी सेवना रखे जोशो ॥ ६ ॥ ता० ॥ वीनति मानजो, शक्ति ए यापजो, नाव स्याहादता शुरू ना से ॥ साधि साधक दशा, सिता अनुनवी, देवचं विमल प्रनुता प्रकासे॥ ७ ॥ ता० ॥ इति ॥
कलशाचोवीसे जिनगुण गायें, ध्याश्य तत्त्वस रूपो जी ॥ परमानंद पद पायें,अक्ष्य ग्यान अनुपो जी॥१॥ चो० ॥ चवदहमें बावन जला, गणधर गु ग नंमारो जी ॥ समतामयि सादु साहुणी, सावय सावई सारो जी॥ २ ॥ चो० ॥ वईमान जिनवर तणो, शासन अति सुखकारो जी ॥ चनविह संघ वि राजतां, दूसम काल वाधारो जी॥३॥ चो० ॥ जि न सेवनथी ज्ञानता, लहे हिताहित बोधो जी ॥ थ हित त्याग हित चादरे, संयम तपनी शोधो जी॥ ॥ ४ ॥ चो० ॥ अनिनव कर्म यग्रहणता, जीर्ण क मै अनावो जी ॥ निःकर्मीने अबाधता,अवेदन अना कुलनावो जी॥ ५ ॥ चो॥जावरोगना विगमथी,