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(५२२) ते रूपथी नियत अनव्यता ॥ ४॥ धर्म प्रागजावता सकल गुण गुरुता, नोग्यता कर्तृता रमण परिणा मता ॥ शुक्ष स्वप्रदेशता तत्त्व चैतन्यता, व्याप्य व्या. पक तथा ग्राह्य ग्राहक गता ॥ ५॥ संग परिहारथी स्वामी निज पद लघु, शु३ आत्मिक आनंद पद संग्रह्यं ॥ जहवि परजावर्थ हूं नवोदधि वस्यो. परत गो संग संसारतायें ग्रस्यो॥ ६॥ तहवि सना गुणें जीव ए निर्मलो, अन्य संश्लेष जिम फिटक नवि शामलो ॥ जे परोपाधिथी दुष्ट परिणति ग्रही, नाता दात्म्यमां माहरूं ते नहीं॥ ७ ॥ तिणे परमात्म प्रनु नक्ति रंगी थई, शु६ कारणरसं तत्त्व परिणति मयी। आत्मग्राहक थये तजे पर ग्रहणता, तत्त्व जोगी थयेटले परनोग्यता ॥ ७ ॥शु निःप्रयास निजनाव जोगी यदा, आत्मदेत्रे नही अन्य रण तदा ॥ एक असहाय निस्संग निहता,शक्ति नुत्सर्गनी होय सदु व्यक्तता॥णातेरो मुफ पातमा तुकथकी नीपजे, मा हरी संपदा सकल मुफ संपजे॥ तिणे मन मंदिरें धर्म प्रनु ध्यायें,परम देवचं निज सिदिसुख पाईयें॥१०॥ ॥अथ षोडश श्रीशांति जिन स्तवनं ॥
माला किहां रे ॥ एदेशी ॥ ॥ जगत दिवाकर जगत कृपानिधि, वाल्हा मारा समवसरणमां बेठा रे॥चनमुख चनविह धर्म प्रकासे, ते में नयणें दीवा रे॥१॥ नविक जन हरखो रे, नि रख शांतिजिणंद ॥ न ॥ उपशमरसनो कंद, नहिं