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( ५२१ ) जी ॥ रत्न हो प्रभु रत्नत्रयी गुणमाल, अध्यातम् हो प्र अध्यातम साधन सधे जी ॥ ४ ॥ मोठी हो प्रभु मीठी सूरत तुऊ, दीवी हो प्रभु दीठी रुचि बहु मानथी जी ॥ तुऊ गुण हो प्रभु तुऊ गुण जासन यु क्त, सेवे हो प्रभु सेवे तसु जव जय नथी जी ॥ ५ ॥ नामें हो प्रभु नामें अद्भुत रंग, ठवणा हो प्रनु ठवणा दीठे नसें जी ॥ गुण यास्वाद हो प्रभु गुण यास्वा द अनंग, तन्मय हो प्रनु तन्मयतायें जे धसे जी ॥ ६ ॥ गुणअनंत हो प्रभु गुणनंतनो वृंद, नाथ हो प्रभु नाथ अनंतने यादरे जी ॥ देवचंद हो प्रभु देवचंइने खानंद, परम हो प्रनु परम महोदय ते वरे जी ॥ 9 ॥ इति ॥
॥ अथ पंचदश श्रीधर्म जिन स्तवनं ॥ ॥ सफल संसार अवतार ए हुं गणुं ॥ ए देशी ॥ ॥ धर्म जगनाथनो धर्म शुचि गाइयें, आपणो या तमा तेहवो जावियें || जाति जसु एकता तेह पलटे नहिं, शुद्ध गुण पड़वा वस्तु सत्तामयी ॥ १ ॥ नि त्य निरवयव वलि एक व्यक्क्रिय पणे, सर्व गत तेह सामान्य जावें जणे || तेहथी इतर सावयव विशेष ता, व्यक्तिनेर्दे पडे जेहनी नेदता ॥ २ ॥ एकता पिं मने नित्य विनाशता, अस्ति निज ऋद्धिथी कार्य गत जेदता ॥ नाव श्रुत गम्य अनिलाप्य अनंतता, जव्य पर्यायनी जे परावर्त्तता ॥ ३ ॥ क्षेत्र गुण नाव विभाग अनेकता, नाश उत्पाद अनित्य पर नास्तिता ॥ क्षेत्र व्याप्यत्व खनेद अव्यक्तता, वस्तु