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( ५११) ॥अ०॥ कार्य कारण पणे परिणमे तहवि ध्रुव, कार्य नेदें करे पण अनेदी ॥ कर्तृता परिणमे नव्यता नवि रमे, सकल वेत्ता थको पण अवेद ॥ ३ ॥ अ०॥ शुद्धता बुद्धता देव परमात्मता, सहज निज नाव नोगी अयोगी॥ स्वपर उपयोगि तादात्म्य सत्तारसी, शक्ति प्रयुंजतो न प्रयोगी ॥ ४ ॥ ॥ वस्तु निज परिणते सर्व परिणामकी, एटले कोइ प्रनुता न पामे ॥ करे जाणे रमे अनुनवे ते प्रनु, तत्त्व स्वा मित्व शुचि तत्त्व धामे ॥ ५॥ अ० ॥ जीव नवि पु ग्गली नैव पुग्गल कदा,पुग्गलाधार नहीं तास रंगी॥ पर तणो ईश नहीं अपर ऐश्वर्यता, वस्तुधर्मे कदा न परसंगी ॥ ६ ॥ अ० ॥ संग्रहे नहीं आपे नहीं पर जणी, नवि करे आदरे न पर राखे ॥ शुस्या छाद निज नाव नोगी जिके, तेह परजावने केम चाखे ॥ ७ ॥०॥ ताहरी शुद्धता नास आश्चर्यथी, नपजे रुचि तेणे तत्त्व ईहे ॥ तत्त्वरंगी थयो दोषथी ननग्यो, दोष त्यागे टले तत्त्व लीहे ॥ ७ ॥ अ॥ गुरू मार्गे वध्यो साध्य साधन सध्यो, स्वामी प्रतिबंदे सत्ता आराधे ॥ आत्म निष्पत्ति तिम साधना नवि टके, वस्तु उत्सर्ग आतमसमाधे ॥ ए ॥ अ० ॥ माहरी शुद्ध सत्तातणी पूर्णता, तेहनो हेतु प्रनु तुंहि साचो ॥ देवचंई स्तव्यो मुनिगणें अनुजव्यो, तत्त्व नक्तं नविक सकल राचो ॥ १०॥ अ॥ इति ॥