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(५१०) नहीं,नावें तें अन्य प्रयाप्त हो मित्त ।। क्युं०॥ ॥ शुभ स्वरूप सनातनो, निर्मल जे निःसंग हो मित्त ॥ आतम विनति परिणम्यो, न कर ते परसंग हो मित्त ॥ क्युं ॥३॥ पण जाणुं आगम बलें, मलवो तुम प्रनु साथ हो मित्त ।। प्रनुलो स्वसंपत्तिमयी, शुद्ध स्व रूपनो नाथ हो मित्त ॥ क्युं ॥४॥ पर परिणामि कता अजे, जे तुझ पुगल जोग हो मित्त ॥ जड चल जगनी एठनो, न घटे तुमने नोग हो मित्त ॥ क्युं०॥५॥ शुभ निमित्त प्रनु ग्रहो, करी अशुभ पर हेय हो नि त॥अत्मालंबी गुण लही, दु साधकनो ध्येय हो मित्त ॥ क्युं॥६॥ जिम जिनवर आलंबनें, वधे सधे एक तान हो मित्त ॥तिम तिम आत्मालंबनी,ग्रहे स्व रूप निदान हो मित्त ॥ क्युंग॥ ७॥ स्व स्वरूप एकत्वता, साधे पूर्णानंद हो मित्त ॥रमे नोगवे आतमा,रत्नत्रयी गुणवंद हो मित्त । क्युं ॥ ॥ अनिनंदन अवलंबने, परमानंद विलास हो मित्त ।। देवचं प्रनु सेवना, क रि अनुनव अन्यास हो मित्त ॥ क्युं ॥ए ॥ इति ॥ ॥अथ श्रीसुमतिजिनस्तवनं ॥ कडखानी देशी॥
॥ अहो सिरी सुमतिजिन शुद्धता ताहरी, स्वगुण पर्याय परिणाम रामी ॥ नित्यता एकता अस्तिता इतरयुत, जोग्यजोगीथको प्रनु अकामी॥१॥अ॥ उपजे व्यय लहे तहवि तेहवो रहे, गुण प्रमुख बहुलता तहवि पिंकी॥ आत्मनावें रहे अपरता नवि ग्रहे, लोक प्रदेश मित पण अखंमी॥ ॥