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(५१२) ॥ अथ श्रीपद्मप्रनजिन स्तवन ॥ ॥ढुंतुज पागल शी कहुँ केशरीया लाल ॥ए देशी॥
॥ श्रीपद्मप्रन जिन गुणनिधि रेलाल, जग तारक जग दीस रे॥ वाल्हेसर ॥ जिन उपगारथकी लहे रे लाल, नविजन सिदि जगीस रे ॥ वा० ॥ ॥ तुऊ दरिसण मुफ वालटुं रे लाल, दरिसण शुभ पवित्त रे ॥ वा० ॥ दर्शन शब्द नये करे रे लाल, संग्रह एवं नूत रे ॥ वा० ॥२॥तु ॥ वीजें वृद अनंतता रे लाल, पसरे नू जल योग रे।। वा ॥तिम मुफ प्रा तम संपदा रे लाल, प्रगटे प्रनु संयोग रे ॥ वा० ॥ ॥३॥ तु० ॥ जगत जंतु कारज रुची रे लाल, साधे उदयें जाग रे॥वा॥ चिदानंद सुविलासता रेलाल, वाधे जिनवर जाण रे ॥ वा ॥ ४ ॥ तु० ॥लब्धि सिदि मंत्रादरें रेलाल, उपजे साधक संग रे॥वा॥ सहज अध्यातम तत्त्वता रे लाल, प्रगटे तत्त्वी रंग रे॥ वा०॥ ५॥ तु०॥ लोह धातु कंचन दुवे रे लाल, पारस फरसन पामि रे ॥ वा० ॥ प्रगटे अध्यातम दिशा रे लाल, व्यक्त गुणी गुण ग्राम रे ॥ वा० ॥६॥ ॥ तु० ॥ आत्मसिदि कारज नगी रे लाल, सहज निर्यामक हेतु रे ॥ वा० ॥ नामादिक जिनराजनां रे लाल, नवसागरमांहे सेतु रे । वा० ॥७॥ तु० ॥ थंजन इंख्यि योगनो रे लाल, रक्त वरण गुण राय रे ॥ वा० ॥ देवचं तूंदें स्तव्यो रे लाल, आप अवर्ण अकाय रे ॥ वा० ॥ ७ ॥ तु० ॥ इति ॥