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(४४) ॥ आत्मोपदेश लावणी सातमी॥ ॥ तुम तजो जगतका ख्याल, इसक्का गानां ॥ इस० ॥ तेरी अल्प उमर खुट जाय, नरक उठ जा नां ॥ तें दिनो चार जुग बीच, लिया हे वासा ॥ लिया० ॥ तेरे सिरपर बेठा काल, करे हे हांसा ॥ में बोलुं साची बात, जूठ नही मासा ॥ जूत ॥ तुं सूता हे कुण निंद, किसी कर बासा ॥ अब सेव दे व जिनराज, खलकमें खासा ॥ खल० ॥ तेरा जोब न पतंगका रंग, जून सब आसा ॥ अब हिये धरो मेरी सीख, समज रे दिवाना॥सम ॥ तुम॥१॥ अब बुरी जली सब बात, मौन कर रीजें ॥ मौन॥ ए मुख मीठा संसार, नेद नहिं दीजें ॥ कर वीतरा ग विसवास, हिये धर लीजें॥हिये ॥ पण नीच ना रिका संग, मांहे मत नीजें ॥अब सात बिसनको सं ग, प्रीति मत कीजें ॥ प्रीति॥ तोहे उगति दे पहों चाय, तेरो तन बीजे ॥ तुं सुख दुःखका सिरदार, रं क नही राणा ॥ रंक ॥ तुम ॥ २ ॥ तुं बिसर ग या जुग बीच, नाम जिनवरका ॥ नाम ॥ पच रह्या कुटुंबके काज, किया फंद घरका ॥ तें दया धर्म बि न खोया, जनम सब नरका ॥ जनम ॥ तें पच्ने बांध्या पाप, कसाई सरवा ॥ अब लीया नही तें ला ज, बखत पर करका ॥ बखत ॥ तेरी वीति बात सब जाय, जनम ज्युं खरका ॥ अब सुणो सीख सू तरकी, सुलट रे शाणा ॥ सुलम् ॥ तुम० ॥ ३ ॥