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(४४७) ॥बही सुमति कुमतिनी लावणी ॥ हारे तुं कुमति कलेसण नार, लगी क्युं केडे ॥ लगी० ॥ चल सरक खड़ी रहे दूर, तुजे कुण डे ॥ ए आंकणी ॥ हारे तुं सुमतिको नरमायो, मुके क्युं बोडी ॥ मुके० ॥ मेरी सदा शाश्वती प्रीत, बी नकमें तोडी ॥ तुज बिन सुन मेरी सेज, कढं कर जोडी ॥ कहुं० ॥ न चलो हमारे संग, सुखें रहो पहोडी ॥ युं जुर जुर कुमति आंसुं, अांखसें रेडे ॥ यांख० ॥ चल ॥१॥ हारे तेरी नरक निगोदकी सहेज, सेंतिमें रूग्यो ॥ सेंति॥पकड्यो साचो जिन राज, संग तेरो ठ्यो ॥ तेरी मूरख माने बात, हैया को फूट्यो ।हैया॥ में सहज दुवो टुं दूर,तार तेरो त्रूट्यो।तुं कर दूरसें बात, आव मत नेडे॥ आ० ॥ च॥शातेरी अनंत कालकी प्रीत,पलक नही पाली॥ पलक ॥ सुमतिके लागो संग, मुके क्यों टाली ॥ तुं सुमतिको सिरदार, सुणावे गाली॥सुमातेरी हम दोनुं हे नार, गोरी र काली ॥ तूं हमकुं तेले दूर, सुमतिकुं तेडे ॥ सुम० ॥ चल ॥ ३ ॥ अब कुमतिको लल चायो, रति नहीं मगियो॥ रति ॥ सुन कर सूत्रकी शीख, लान होय लगीयो ॥ चेतन कुमतिके सेहज, दूरघु नगीयो ॥ दूर ॥ जिनराज बचनको ग्यान, हैयेमें जगीयो ॥ जिनदास कुमत तुं बात, खोटीम त खेडे ॥ खोटी० ॥ चल सरक० ॥ ४ ॥ इति ॥