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(४४७) युं जिनदास, सरव रस बेनां ॥ सरव०॥ अब० ॥ ४ ॥
॥पांचमी जीव उपदेशनी लावणी॥ ॥ खबर नहीं था जुगमें पलकी रे ॥ खबर ॥ सुकत करना होय तो कर ले, कोन जाने कलकी । ए आंकणी॥ या दोस्ती हे जगवासकी, काया मंगल की ॥काया ॥ सास नसास समा ले साहेब, आयु घटे पलकी ॥ खबर ॥ १॥ तारा मंगल रवी चं मा, सब हे चलनेकी ।। सब० ॥ दिवस चारका च मत्कार ज्युं, वीजलिया जलकी ॥ खबर ॥ २ ॥ कूड कपट कर माया जोडी, करि बातां उसकी ॥ करि०॥ पापकी पोटली बांधी सिर पर, कैसे होय ह लकी ॥ खबर ॥३॥ या जुग हे सुपनेकी माया, जैसी बुंदा जलकी ॥ जैसी०॥ विणसंतां तो वार न लागे, उनीयां जाये खलकी ॥ खबर० ॥ ४ ॥ मात तात सुत बंधव बाई, सब जुग मतलबकी ॥ सब०॥ काया माया नार हवेली, ए तेरी कबकी ॥खबर॥५॥ मन मावत तन चंचल हस्ती, मस्ती हे बलकी ॥ ॥ मस्ती० ॥ सतगुरु अंकुश धरो सीसपर, चल मारग सतकी ॥ खबर ॥ ६॥ जब लग हंसा रहे देहमें, खुशियां मंगलकी ॥ खुशि० ॥ हंसा बोड चव्या जब देही, मटीयां जंगलकी ॥ खबर ॥ ७ ॥ दया धरम साहेबको समरन, ए बातां सतकी॥ए बातां ॥राग शेष उपजे नही जिनकुं, बिनति अखमलकी॥ख॥॥