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(४१६) जिनदास, सुनो जिनबानी ॥ सुनो।कोइ० ॥४॥
॥चोथीजीव शिखामणनी लावएगी॥ । एक जिनवरका निज नाम, हियामें जनां ॥ ॥ दिया। अब लग हागन जिनवरसें, आप खुश रहेन। सदा खुश रहेन । ए अांकणी॥अब निरखं जिन दीदार, दरस कब प नं ॥ दर ॥ जगमें जिन वर निज नाम, निरंजन ध्यावं ॥अब रहे नयन लो जाय, हियो नित्य फरके ॥ दियो ! मोहे जिनदर्श नकी घास, पाप सब लरके ॥ अब सुरगति निरग्वा रूप, नजर नर नेनां ॥ नजर ॥ अब० ॥१॥ अत्र मिट्यो नरण नव नवको, अास मुफ पूरो॥पास ॥ में जपुं जिणंदको नाम, मेलुं नही दूरी ॥ ए घनघा ति घाले घेर, करम सब चूरो ॥ कर ॥ में उर्गति नमतां आयो, आप हजूरो ॥ अब गुन नजरां मुज निरख, मुगति पद देनां ॥ मुग॥ अब० ॥ ॥ अब हे हीराकी खान, ग्यान निज करणी ॥ ग्यान॥ ए मुगति पंथ दातार, सुमतिकी घरणी॥अब शुकल ध्यानकी पेडी, चढा नीसरणी ॥ चढा०॥ एसा जगमें संत सुजान, मुगति पद वरणी ॥ अब आपो मया कर कर कें, अमर सुख चेनां ॥अमर॥अब॥३॥ अब बैठ करूं में मोज, आनंदके घरमें ॥ या॥ में परख्या श्रीजिनराज, जगत कुण जरमें ॥ में कुःख जोगता हे अनंत, करे कुण लेखो ॥ करे॥ में अरज करूं तन मनसें, नजर जर देखो ॥ अब बोलत