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(४००) कुण कुण जीव नम्या नवमांहे, कोध तणे विरतंत जी ॥ ॥ ३ ॥ सोमल ससरे शीश प्रजात्यु, बांधी माटीनी पाल जी ॥ गजसुकुमाल दमा मन ध रतो, मुगति गयो तत काल जी। या ॥४॥कुलवा लु साधु कहातो,कीधो कोष अपार जी॥कोणिकनी गणिका वश पडियो, रडवा यो संसार जी ॥ आ० ॥ ५ ॥ सोवनकार करीति रेदन, वाध्रगुं वींटियुं शीश जी ॥ मेतारज इपि मुग पोहोतो, उपशम ए ह जगीश जी ॥ श्राः ॥ ६ ॥ कुरुड तुरुड वे साधु कहाता, रह्या कुणाला खाल जी॥क्रोध कराते कुगतें पहोता, जनम गमायो पाल जी ॥ प्रा० ॥ ७ ॥ कर्म खपावी मुंगतें पहोता, खंधक सूरिना शिष्य जी ॥ पालक पापीयें पाणी पीव्या, नाणी मन मां रीश जी ॥ प्रा०॥ ७ ॥ अचंकारी नारी अचुं की, त्रोड्यो पीयुगुं नेह जी ॥ बब्बर कुल सह्यां फुःख बदुला, क्रोध तणां फल एह जी॥ प्रा० ॥ ॥ ॥ वाघणे सर्व शरं वलस्यं, ततहण बो ड्यां प्राण जी ॥ साधु सुकोशल शिव सुख पाम्या, ए ह दमा गुण जाण जी॥ आ० ॥ १० ॥ कुण चं माल कहीजें बिटुमें, निरति नही कहे देव जी ॥ पिचंमाल कहीजें वडतो, टालो वेढनी टेव जी॥ ॥ आ ॥ ११ ॥ सातमी नरक गयो ते ब्रह्मदत्त, काढी ब्राह्मण आरव जी ॥ क्रोध तणां फल कडयां जाणी, राग क्षेप द्यो नाख जी ॥ आ० ॥ १२॥ खं